Tuesday, February 24, 2015

ये सफर नहीं है सुहाना

हर साल रेल बजट आता है..हर बार मीडिया दिखाती है कि किस तरह राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस जैसी खास ट्रेनों की पेंट्री कार कितनी गंदी है..इन ट्रेनों में सफर करने वाले खुद को वीआईपी मानते हैं लेकिन भोजन जिस तरह बन रहा है..उसे बनते देख लो तो जीवन भर ट्रेनों में खाने से मुंह मोड़ लो। जहां खाना बन रहा है वहां इतनी गंदगी..कीड़ों-मकोड़ों की मौजूदगी...गंदा पानी...खुले में रखी खाद्य सामग्री...और ठीक उसके उलट जब हमारे पास आती है तो कर्मचारी साफ-सुथरी ड्रेस में..बड़े नजाकत से ढकी हुई थाली में मिनरल वाटर के साथ जब भोजन रखता है तो हमें लगता है कि पैसा वसूल हो गया। जब वीआईपी ट्रेनों का ये हाल है तो बाकी ट्रेनों में क्या परोसा जा रहा होगा..आप अंदाजा लगा सकते हैं।

एक तरफ जो पैसा खर्च किया है उसका मोह..दूसरी तरफ सेहत..हम अक्सर पैसे की ओर झुक जाते हैं..जिसका नतीजा हमें उससे कई गुना महंगा भुगतना पड़ सकता है। ये तो है ट्रेनों के खाद्य सामग्री की हकीकत..दूसरी हकीकत है रेल प्रबंधन की..माननीय मंत्री जी कहते हैं..हमारा लक्ष्य है सुरक्षित सफर..बेहतरीन भोजन..पानी...साफ-सफाई..समय पर मंजिल तक पहुंचाना और न जाने क्या-क्या। आप अच्छी तरह समझते हैं कि इतने सालों के बाद भी अगर रेलवे स्टेशन पर आप पानी पी रहे हैं तो जरा टंकी में झांक कर देख लीजिए कि उसमें कितना पानी है..कितने कीड़े-मकोड़े हैं और कितना कचरा है..साफ-सफाई की बात करें तो दिल्ली के स्टेशन पर ही देख लीजिए कि प्लेटफार्म से लेकर पटरियों के बीच कितनी सुहानी तस्वीरें हैं। अब बात कर लेते हैं सुरक्षा की तो...एक्सीडेंट हो जाए तो रेलवे की गलती नहीं...या तो ड्राइवर की होगी..या स्टेशन मास्टर की..या फिर भगवान भरोसे छोड़ी गईं रेलवे क्रासिंग की...

जहां तक वक्त पर पहुंचाने की बात है तो कहने ही क्या..एक बार ट्रेन वक्त पर पहुंची तो एक विदेशी ने कहा कि अरे..वाह भारत में भी ट्रेन सेंकडस के हिसाब से चलती है..तो भारतीय ने बताया कि ये आज की नहीं कल की ट्रेन आई है। ये तो मजाक की बात है लेकिन हमारे साथ मजाक कम नहीं हो रहा...अगर ट्रेन लेट हो गई है तो इसकी सूचना पाना भी आसान नहीं...139 नंबर पर आपरेटर आ जाए तो बड़ी बात..पूछताछ खिड़की पर लंबी-लंबी कतारें और सूचना देने वाला गुस्सा...उस पर ही मजाक ये कि जितनी देरी बताई जा रही है..उतनी ही देर और लग जाए तो कोई नई बात नहीं...ट्रेन है...व्यवस्था है...सफर है लेकिन अनुशासन बिलकुल नहीं..न तो यात्रियों का न रेलवे प्रबंधन का...रिजर्वेशन के डिब्बे में भी यात्री ऐसे भरे पड़े रहते हैं कि आप सीट तक पहुंच जाए तो आप साहसी पुरुष...बिहार के लोग ट्रेनों का जो किस्सा सुनाते हैं तो सुनने वाले को लगता है कि कामेडी शो है और जो भुक्तभोगी है उसके लिए नरक की यात्रा है..तीन चार महीने पहले से रिजर्वेशन मिल जाए तो आप लकी है..नहीं तो हमेशा वेटिंग से ही शुरूआत होती है..ऐसा करिश्मा फुल प्रूफ सिस्टम में कैसे संभव है ये रेलवे उन दलालों से पूछे..जो एक रात पहले भी आपको कन्फर्म टिकट दे देंगे लेकिन दुगने और तिगने दाम में। चलो टिकट मिल गया तो ट्रेन में आप घुसेंगे कैसे..ये आपकी जिम्मेदारी है रेलवे की नहीं..टायलेट में अगर 12 यात्री घुस सकते हैं तो डिब्बे में कितने..ये आप केलकुलेशन कर लीजिए। अगर दुमका से ट्रेन जा रही है तो नक्सली आपका स्वागत कभी भी कर सकते हैं..ये आपकी किस्मत पर निर्भर है। अव्वल तो ज्यादातर प्लेटफार्म टिकट लेते नहीं..जो लेना भी चाहें तो ट्रेन निकलने के बाद ही मुमकिन है।

हैरानी इस बात की है कि कोई मानीटर सिस्टम है या नहीं...कोई पेट्रीकार देखता है या नहीं..कोई पानी की टंकी में झांकता या नहीं..प्लेटफार्म तो इतना बड़ा है फिर वहां की और पटरियों पर गंदगी क्यों नहीं दिखती..रिजर्वेशन के डिब्बे में इतने लोग कैसे घुसकर सफर कर लेते हैं। कोई पूछताछ नंबर पर डायल कर जांच क्यों नहीं करता..उन दलालों से ये रहस्य क्यों पता नहीं लगा पाते कि कन्फर्म टिकट के लिए उनके पास कौन सी जादू की छड़ी है। यदि ये सिस्टम रेलवे के अफसरों को नहीं दिखता तो फिर बुलेट ट्रेन की क्यों सोच रहे..पहले पैसेंजर ट्रेन की हालत ही सुधार लो..पानी-भोजन को ही सुधार लो..पूछताछ और रिजर्वेशन को ही सुधार लो..बुलेट ट्रेन में बाद में सवार हो लेंगे...नहीं तो ऊपर दिया टाइटिल ट्रेन पर लगा दो..और चलते रहो...बाकी फिर......