सावन का सोमवार हो या ही शिवरात्रि, या फिर रामनवमी, ..या फिर जन्माष्टमी.. कोई मंगलवार को व्रत रखता है, कोई शुक्रवार को, कोई गुरूवार को, कोई शनिवार को। मैं भी रखता हूं...सवाल उठ रहा है कि व्रत क्यों? बाकी दिन क्यों नहीं. इस दिन व्रत रखने के कितने फायदे हैं...क्या भक्ति का एक जरिया उपवास रखना है...क्या उपवास रखने से ईश्वर ज्यादा प्रसन्न होते हैं। नहीं मालूम।
..ईश्वर कण-कण में है..ईश्वर की भक्ति हर दिन है..पूजा हर दिन है....आज व्रत क्यों...आज ही नहीं..रामनवमी..जन्माष्टमी पर भी रखते हैं। किसी भगवान के जन्मदिन पर...किसी की शादी पर....शिवजी का जन्म कब हुआ था..उनका जन्मदिन हम क्यों नहीं मनाते..उस दिन व्रत क्यों नहीं रखते...किसी भगवान का जन्मदिन मनाते है..किसी की शादी का पर्व मनाते हैं। वजह मुझे नहीं मालूम..आपको मालूम हो तो जरूर बताएं...
आज मंदिर गया तो देखा कि पुरुषों की भीड़ काफी कम..महिलाओं की कई गुना ज्यादा...ये भी एक सवाल है कि महिलाएं ज्यादा भक्ति क्यों करती हैं। पुरुष क्यों नहीं करते...महिलाएं व्रत भी ज्यादा रखती है पुरुष नहीं.. क्या पुरुष ज्यादा व्यस्त हैं इसलिए महिलाओं ने उनकी भी भक्ति का ठेका ले रखा है या फिर महिलाएं अपने परिवार को लेकर ज्यादा चिंतित रहती हैं इसलिए भक्ति के जरिए वो सुख-समृद्धि बढ़ाने में जुटी हैं।
बुरा न मानना..एक और सवाल मन में घुमड़ रहा है कि जो हिंदू-मुस्लिम...पति-पत्नी है वो दोनों के धर्म क्यों निभाते हैं...जो पति-पत्नी हिंदू ही है वो मस्जिद क्यों नहीं जाते..या फिर जो मुस्लिम पति-पत्नी हैं वो मंदिर क्यों नहीं जाते। हिंदू-मुस्लिम पति-पत्नी एक-दूसरे से निभाने के लिए..एक दूसरे के प्रति सदभाव के लिए मंदिर-मस्जिद जाते हैं। ऐसा ही ईसाई और सिखों के लिए है। दरअसल हमने न तो धर्म जाना..न ईश्वर...हम तो देखा-देखी जो हो रहा है..उसे निभाते हैं..चाहे दबाव में निभाएं...चाहे दिखावे के लिए निभाएं..चाहे परंपरा के नाम पर निभाएं..जब समय मिलता है तो पूजा करते हैं..व्रत रखते हैं..जब मौका होता है तो मंदिर में मत्था टेकते हैं..जब मौका होता है तो प्रसाद चढ़ाते हैं..वो भी अपने सामर्थ्य के अनुसार..ईश्वर के लिए पूरा धन समर्पित नहीं करते..दस या बीस रुपए का प्रसाद चढ़ाकर उनसे करोड़ों की मन्नत मांगते हैं। हम चाहते हैं कि कम से कम में काम बन जाएं..दरअसल हम अपनी सुविधा से चलते हैं. जरा सोचिए कि किस-किस ईश्वर की भक्ति करनी है.. ईश्वर की भक्ति क्यों करनी है.कैसे करनी है...कितनी करनी हैं..कब करनी हैं...किसको कम किसको ज्यादा करनी हैं..सवाल का जवाब मिले तो सारे भक्तों को बताना.कोई मन में भक्ति करता है तो कोई जोर-जोर से बोलकर, कोई तमाम लोगों को निमंत्रण देकर, कोई हाथ जोड़कर काम चला लेता है तो कोई पूजा-अर्चना विधिविधान से करता है, कोई दो मिनट करता है तो कोई आधा घंटा..कोई कभी व्रत नहीं रखता तो कोई हर हफ्ते एक दिन रखता है तो कोई केवल किसी खास त्योहार पर सबके अपने अपने तर्क हैं सबके अपने-अपने तरीके हैं लेकिन सब सुख, संतुष्टि और समृद्धि मांगते हैं..कोई अपनी नौकरी के लिए प्रार्थना करता है तो कोई कमाई बढ़ाने के लिए.तो कोई अपने बच्चे के भविष्य के लिए.तो कोई सेहत अच्छी करने के लिए..जब जीवन में ज्यादा कष्ट होता है तो पूजा ज्यादा बढ़ जाती है जब अपने जीवन में ज्यादा मस्त रहते हैं तो केवल रुटीन से काम चला लेते हैं...क्या कभी सोचा है कि हमें पूजा कब करनी चाहिए, क्यों करनी चाहिए, कितनी करनी चाहिए और क्या करनी चाहिए, व्रत कब रखना चाहिए, क्यों रखना चाहिए, कैसे रखना चाहिए? ये तमाम सवाल मेरे मन में भी घुमड़ते हैं, आपको जवाब मिले तो जरूर बताईए...बाकी फिर....
..बाकी फिर......
..ईश्वर कण-कण में है..ईश्वर की भक्ति हर दिन है..पूजा हर दिन है....आज व्रत क्यों...आज ही नहीं..रामनवमी..जन्माष्टमी पर भी रखते हैं। किसी भगवान के जन्मदिन पर...किसी की शादी पर....शिवजी का जन्म कब हुआ था..उनका जन्मदिन हम क्यों नहीं मनाते..उस दिन व्रत क्यों नहीं रखते...किसी भगवान का जन्मदिन मनाते है..किसी की शादी का पर्व मनाते हैं। वजह मुझे नहीं मालूम..आपको मालूम हो तो जरूर बताएं...
आज मंदिर गया तो देखा कि पुरुषों की भीड़ काफी कम..महिलाओं की कई गुना ज्यादा...ये भी एक सवाल है कि महिलाएं ज्यादा भक्ति क्यों करती हैं। पुरुष क्यों नहीं करते...महिलाएं व्रत भी ज्यादा रखती है पुरुष नहीं.. क्या पुरुष ज्यादा व्यस्त हैं इसलिए महिलाओं ने उनकी भी भक्ति का ठेका ले रखा है या फिर महिलाएं अपने परिवार को लेकर ज्यादा चिंतित रहती हैं इसलिए भक्ति के जरिए वो सुख-समृद्धि बढ़ाने में जुटी हैं।
बुरा न मानना..एक और सवाल मन में घुमड़ रहा है कि जो हिंदू-मुस्लिम...पति-पत्नी है वो दोनों के धर्म क्यों निभाते हैं...जो पति-पत्नी हिंदू ही है वो मस्जिद क्यों नहीं जाते..या फिर जो मुस्लिम पति-पत्नी हैं वो मंदिर क्यों नहीं जाते। हिंदू-मुस्लिम पति-पत्नी एक-दूसरे से निभाने के लिए..एक दूसरे के प्रति सदभाव के लिए मंदिर-मस्जिद जाते हैं। ऐसा ही ईसाई और सिखों के लिए है। दरअसल हमने न तो धर्म जाना..न ईश्वर...हम तो देखा-देखी जो हो रहा है..उसे निभाते हैं..चाहे दबाव में निभाएं...चाहे दिखावे के लिए निभाएं..चाहे परंपरा के नाम पर निभाएं..जब समय मिलता है तो पूजा करते हैं..व्रत रखते हैं..जब मौका होता है तो मंदिर में मत्था टेकते हैं..जब मौका होता है तो प्रसाद चढ़ाते हैं..वो भी अपने सामर्थ्य के अनुसार..ईश्वर के लिए पूरा धन समर्पित नहीं करते..दस या बीस रुपए का प्रसाद चढ़ाकर उनसे करोड़ों की मन्नत मांगते हैं। हम चाहते हैं कि कम से कम में काम बन जाएं..दरअसल हम अपनी सुविधा से चलते हैं. जरा सोचिए कि किस-किस ईश्वर की भक्ति करनी है.. ईश्वर की भक्ति क्यों करनी है.कैसे करनी है...कितनी करनी हैं..कब करनी हैं...किसको कम किसको ज्यादा करनी हैं..सवाल का जवाब मिले तो सारे भक्तों को बताना.कोई मन में भक्ति करता है तो कोई जोर-जोर से बोलकर, कोई तमाम लोगों को निमंत्रण देकर, कोई हाथ जोड़कर काम चला लेता है तो कोई पूजा-अर्चना विधिविधान से करता है, कोई दो मिनट करता है तो कोई आधा घंटा..कोई कभी व्रत नहीं रखता तो कोई हर हफ्ते एक दिन रखता है तो कोई केवल किसी खास त्योहार पर सबके अपने अपने तर्क हैं सबके अपने-अपने तरीके हैं लेकिन सब सुख, संतुष्टि और समृद्धि मांगते हैं..कोई अपनी नौकरी के लिए प्रार्थना करता है तो कोई कमाई बढ़ाने के लिए.तो कोई अपने बच्चे के भविष्य के लिए.तो कोई सेहत अच्छी करने के लिए..जब जीवन में ज्यादा कष्ट होता है तो पूजा ज्यादा बढ़ जाती है जब अपने जीवन में ज्यादा मस्त रहते हैं तो केवल रुटीन से काम चला लेते हैं...क्या कभी सोचा है कि हमें पूजा कब करनी चाहिए, क्यों करनी चाहिए, कितनी करनी चाहिए और क्या करनी चाहिए, व्रत कब रखना चाहिए, क्यों रखना चाहिए, कैसे रखना चाहिए? ये तमाम सवाल मेरे मन में भी घुमड़ते हैं, आपको जवाब मिले तो जरूर बताईए...बाकी फिर....
..बाकी फिर......