अंधेर नगरी चौपट राजा
एक राजा था, जिसे अपनी प्रजा से कोई मतलब नहीं था, अपने में मस्त रहता था, सुरा-सुंदरी में मग्न, भोग विलासिता के अलावा उसे किसी से मतलब नहीं...उसके राज्य में कोई भी संकट आए..कोई भी समस्या आए...कोई मतलब नहीं..अपने मंत्री से कह देता..वो अपने हिसाब से देख ले..बस उसके मनोरंजन का इंतजाम में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए...24 घंटे बस मनोरंजन या कहें अय्याशी में डूबे रहना....नतीजा क्या निकला...राज्य की हालत बिगड़ती गई..उसके मंत्री और बाकी सर्वेसर्वा भी मौका देखकर लूट में लग गए...लूट-खसोट का आलम ये हुआ..कि राज्य में अराजकता फैल गई..और राजा के खिलाफ बगावत हो गई..फिर भी राजा गंभीर नहीं हुआ..उसे लगा कि जितना वक्त मिला है बस भोग करते जाओ...आखिरकार उस राजा का अंत हो गया..दूसरे राज्य का कब्जा हो गया..जो उसके कारिंदे थे..वो उससे ऊपर आ गए..राजा जेल में डाल दिया गया..और सड़-सड़ कर मर गया।
ये कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि कहा जाता है जैसा राजा..वैसी प्रजा...यही बात किसी संस्थान के लिए लागू होता है..किसी परिवार के लिए लागू होता है। जहां हम समूह में काम करते हैं तो उसका मुखिया तय करता है कि उस संस्थान या परिवार को कैसे चलाना है। उनके क्या कायदे-कानून होंगे..क्या अनुशासन होगा..क्या मेहनत होगी..क्या पारिश्रमिक होगा..क्या परंपराएं होंगी..एक पूरा ढांचा तैयार होता है। जाहिर है जैसा मुखिया होता है..वैसा ही वो अपने दाएं और बाएं चुनता है। उसके बाद जो उप प्रमुख होते हैं..वो भी उसकी ही छवि लेकर चलते हैं...उसके पालन में आगे काम करते हैं..फ्रंट में रहते हैं। जो दाएं-बाएं होते हैं वो अपनी उंगलियां भी वैसी ही बनाते हैं..यानि उनके साथ जो कर्मचारी काम कर रहे हैं..वो चाहते हैं कि उनके साथी उन्हें फालो करते हैं..उन्ही के हिसाब से ढल जाए...ये क्रम ऊपर से नीचे चलता है।
फिर इस क्रम में एक तालमेल होता है और संतुलन होता है..सुख-दुख होता है..अच्छा-बुरा होता है...गलत और सही होता है..लेकिन जब पूरा फ्रेम वर्क बनता है तो वो कंपलीट होता है..एक सुंदर तस्वीर सामने आती है..लेकिन जहां इमारत में एक धब्बा होता है तो पूरी की पूरी इमारत बेकार हो जाती है...हर आदमी इमारत के उस धब्बे पर नजर डालता है..उसकी खूबसूरती पर नहीं...यही हाल संस्थान का होता है कि यदि पूरा तालाब अच्छा है लेकिन एक मछली तालाब को गंदा कर रही है तो तालाब का अस्तित्व बिगड़ जाता है..वो तालाब उस एक मछली की वजह से गंदा ही कहलाता है। अगर ये सोचकर हम उसे छोड़ देते हैं कि पूरे तालाब में सैकड़ों लोग है..अगर एक मछली कुछ गंदा भी कर रही है तो क्या हुआ? वहीं हम सबसे बड़ी गलती कर बैठते हैं...अगर आपके संस्थान का एक सदस्य खराब है..या फिर आपके परिवार का एक शख्स खराब है तो पूरी छवि बिगड़ जाती हैं और बाकी की सारी मेहनत खराब हो जाती है। जब हम उस सदस्य को लेकर चुप बैठते हैं..उसे यूं ही कह कर छोड़ देते हैं तो वही आपके विनाश का कारण बन जाता है..आपके विनाश से मतलब उस परिवार में जितने लोग हैं..या फिर उस संस्थान में जितने लोग है..उनके पतन की शुरूआत वहीं से होती है..और एक से ज्यादा हैं तो फिर धराशायी होने में उतना ही कम वक्त लगता है। ऐसे तमाम ग्रुप हैं..तमाम संस्थान हैं..तमाम परिवार हैं जिन्हें धराशायी होते देखा है..किसी दूसरे के कारण नहीं..उसके मुखिया के कारण..या तालाब में उन गंदी मछलियों के कारण...तो जीवन दर्शन यही कहता है कि ऐसे तत्वों को चुपचाप सहन न करें..उन्हें यूं ही न छोड़ दें..और ये न समझें कि जब हमसे वास्ता होगा..तब हम बोलेंगे...सब कुछ खत्म हो जाएगा...और फिर आप कुछ नहीं कर पाएंगे....बाकी फिर......