Monday, September 21, 2015

ये भेद तो हम खुद बनाते हैं...

हमारे पैतृक गांव में रिश्ते में एक अंकल हैं..वो अपने पिता के इकलौते बेटे हैं..उनके पिता भी इकलौते बेटे थे। उनके परिवार में ऐसा माना जाता रहा है कि एक ही बेटा होता है और वो ही वंश आगे बढ़ाता चलाता जाता था। जब अंकल की शादी हुई तो मैं बहुत छोटा था..शादी में मैं भी गया था। पिता ने धूमधाम से शादी की और शादी के बाद उन्हें एक ही चिंता सताने लगी कि एक बेटा हो जाए..ताकि वंश आगे बढ़ सके। पहला बच्चा आने की खुशी शुरू हुई..लेकिन जब बेटी हुई तो उनके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं...अगले साल ही फिर बच्चा आने की सुगबुगाहट हुई..इस बार फिर आशा बंधी कि अब बेटा होगा..लेकिन दूसरी भी बेटी हुई..तीसरी बार भी फिर बेटी हुई..तीन-तीन बेटियों को घर में देखकर उनका दिल कमजोर हो गया..और इसी चिंता में वो चल बसे..

अंकल भी नहीं माने और उनकी मां भी..करते-करते छह बेटियां हो गईं। आप समझ सकते हैं कि छह बेटियां हुईं हो उनके लालन-पालन का बोझ परिवार पर बढ़ने लगा। घर की खेती थी जिससे अनाज का खर्च चल जाता है..गांव में पैतृक घर था..इसलिए घर किराया नहीं लगता था..लेकिन बच्चियों की पढ़ाई.और शादी की चिंता में अंकल की हालत खराब हो गई। कचहरी में काम करने तहसील जाते थे..सौ-दौ रुपए रोज कमा लेते थे और फिर खेती-बाड़ी का सहारा था..लेकिन छह बच्चियों की पढ़ाई और लालन-पालन के लिए ये काफी नहीं था। हमारे पिता जी को ऐसे सारे लोगों की चिंता होती थी और अब भी होती है जो जीवन में इस तरह का संकट झेल रहे हैं। पिता जी अक्सर उनके बारे में बातें करते रहते हैं। अंकल जब भी घर आते..तो हमारे पिता जी उनसे बच्चियों का हाल-चाल पूछते और थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद कर देते।
अंकल का पूरा जीवन बेटियों को पढ़ाने और शादी की जद्दोजहद में चला गया..और आज भी चल रहा है। उन्हें मैंने कभी खुश नहीं देखा..सालों में जब भी किसी मौके पर टकराते हैं तो उन्हें देखकर हमारे चेहरे पर भी चिंता की लकीरें खिंच जाती हैं।
इस घटना का जिक्र इसलिए किया कि बेटी हो या बेटा..कोई फर्क नहीं पड़ता..कहते हैं कि पढ़े-लिखे लोग ये भेद नहीं करते..तो बता दें कि अंकल ने भी एमए किया था और कुछ वक्त सरकारी नौकरी भी की..लेकिन जब बूढ़े पिता और मां का बोझ..खेती-बाड़ी और एक-एक कर बच्चियों का पैदा होना..ये सब ने उनकी खुद की जिंदगी खत्म कर दी। एक तरफ वंश की चिंता में दुबले होते गए..तो दूसरी तरफ बच्चियों के बोझ तले..
आप कहेंगे कि बच्चियां बोझ नहीं होती..बच्चियां हो या बच्चे..जब इतने होंगे तो बोझ होंगे ही...जब हम बेटों को वंश चलाने वाला मानेंगे तो बेटियां बोझ होंगी हीं...किताबी पढ़े-लिखे होने का ये मतलब नहीं है कि आप शिक्षित हैं..शिक्षित होने का मतलब है कि आप और हम बेटे-बेटियों में भेद न करें..न बेटे भले होते हैं न बेटियां..न बेटे बुरे होते हैं..न बेटियां..ये भेद हम खुद बनाते हैं..या फिर वो बेटे-बेटियां बनाते हैं...बाकी फिर.....