Saturday, September 12, 2015

डेंगू का डंक कब तक डसता रहेगा?

दिल्ली का लाडो सराय इलाका...उड़ीसा में केंद्रपाड़ा के रहने वाले लक्ष्मीचंद्र..पत्नी बबीता और सात साल का बेटा अविनाश..जिसे प्यार से घर में बिट्टू बुलाते थे। लक्ष्मीचंद्र गुड़गांव की एक प्राइवेट कंपनी में सीनियर पोस्ट पर थे..हंसी-खुशी जिंदगी कट रही थी..अचानक बिट्टू को बुखार आया..पास के एक क्लीनिक में इलाज कराया...जांच में पता चला कि बच्चे को डेंगू है। बच्चे की तबियत जब ज्यादा बिगड़ने लगी तो उन्होंने साकेत के मैक्स अस्पताल..लाजपत नगर के मूलचंद अस्पताल...कालका जी के इरीन अस्पताल..मालवीय नगर के आकाश अस्पताल और साकेत सिटी अस्पताल के चक्कर काटे..लेकिन सभी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों की भीड़ के कारण भर्ती नहीं किया गया। आखिरकार बत्रा अस्पताल में उसे भर्ती कराया गया और अगले दिन ही उसकी मौत हो गई। एक बच्चा..और उसकी भी मौत हो जाए..तो माता-पिता के जीवन में कितना दुख होगा..कहने की जरूरत नहीं।

बच्चे को छतरपुर के श्मशान घाट में दफनाने पहुंचे..पिता लक्ष्मीचंद्र ने फावड़े से खुदाई की और उड़ीसा के रीति-रिवाज के हिसाब से पिता ने बच्चे के दाएं हाथ की उंगली को उसके मुंह में लगाया और बेटे से धीरे से कान में कहा-बेटा बिट्टू..मम्मी इंतजार कर रही हैं..जल्दी आना। रिश्तेदार के मुताबिक..ऐसी मान्यता है कि मां के कोख में वही बच्चा जन्म लेता है। बेटे की मौत से मां टूट गई..बेहोशी की हालत थी..रात 12 बजे तय हुआ कि उड़ीसा चले जाएंगे..लेकिन पत्नी का आईकार्ड न मिलने से बुकिंग नहीं हुई। रात को पत्नी के पिता ने लक्ष्मीचंद को दिलासा दिया लेकिन लक्ष्मीचंद्र ने कहा कि उन्हें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दें..और यही गलती भारी पड़ गई। दोनों एक कमरे में बंद हो गए। रात एक बजे दोनों चुपचाप कमरे से निकले..फ्लैट के बाहर की कुंडी लगा दी..सुबह जब लोग उठे तो देखा कि कमरे में दोनों नहीं है..बाहर से कुंडी बंद है। मोबाइल से पड़ोसियों को बुलाया गया। परिवार..रिश्तेदार श्मशान घाट पहुंचे कि कहीं दोनों वहां तो नहीं है..लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि फ्लैट के पीछे छत से कूदकर दोनों जान दे चुके थे। कमरे में सुसाइड नोट रखा हुआ था।

ये है भारत की असल तस्वीर..देश की राजधानी..जहां डेंगू का इलाज संभव नहीं..डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया..बुलेट ट्रैन..स्मार्ट सिटी और न जाने हम क्या-क्या सोच रहे हैं। हम ये सोच नहीं पा रहे कि देश की राजधानी में इलाज की ये हालत...जहां प्राइवेट अस्पतालों में भी बच्चों को भर्ती कराने का इंतजाम नहीं..सरकारी अस्पतालों की तो बात करना ही बेकार है। अब पांच अस्पतालों को नोटिस जारी हुए हैं..जांच हो रही है..जैसा हर केस में होता है..लेकिन एक मासूम की जान गई और उसके माता-पिता की भी...अगर बच्चे का सही से इलाज हो जाता है तो शायद तीनों जानें बच जातीं। राजनीति पर तो हम बहुत चर्चा करते हैं..इस दुखद हालात पर हम चर्चा क्यों नहीं कर पाते..इसलिए नहीं करते क्योंकि इससे हमारा सीधा सरोकार नहीं..इसमें हमारा कोई फायदा नहीं...उड़ीसा के इस परिवार से हमारा कोई लेना-देना नहीं..लेकिन जब किसी पर गुजरती है तो वो समझता है कि ये भयावह स्थिति आज भी बनी हुई है। क्यों बनी हुई है.इसका जवाब किसी के पास नहीं..बाकी फिर.....

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