Monday, August 31, 2015

नाम से मतलब है या काम से?

मेरे विचारों को और अनुभव को जितने लोग पढ़ रहे हैं..उससे दोगुने लोग हमारे प्रोफाइल को पढ़ रहे हैं..मैं ये और जानना चाहता था कि लोग पहले प्रोफाइल पढ़ रहे हैं या फिर मेरे विचार..लेकिन इसका डाटा मेरे पास नहीं..दूसरी बात जो मैंने पहले भी लिखी है..कि जितने लोग देश में नहीं पढ़ रहे हैं..उससे करीब दो गुने लोग विदेशों में पढ़ रहे हैं..देशों की संख्या कम नहीं..सबसे ज्यादा यूएस है जो भारत की संख्या से भी ज्यादा है..करीब दो गुनी ही है..इसके अलावा ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, रसिया,आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कतर, यूक्रेन हैं..इनके अलावा भी और देश हैं।

अब ये सोचने की बात है कि आखिर लोगों को मेरे लिखे से लेना-देना है या फिर प्रोफाइल से...ज्यादा लोगों की दिलचस्पी प्रोफाइल में क्यों हैं?...ये भी तय है कि जो प्रोफाइल देख रहे हैं वो ब्लाग नहीं पढ़ रहे हैं और जो ब्लाग पढ़ रहे हैं वो प्रोफाइल नहीं देख रहे हैं। हर शख्स पहले एक माइंड सेट बनाता है कि किसे पढ़ना है..जो माइंड सेट बनता है उसी के आधार पर हम तय करते हैं कि उसका लिखा कितना अच्छा है। जिसका बड़ा नाम है..वो कुछ भी लिखता है तो उसके एक-एक शब्द पर बहस होती है..अच्छे-बुरे की तुलना होती है..समझ में नहीं भी आया है तो हम अपनी तरह से समझने की कोशिश कर लेते हैं।
ऐसे कई बड़े लेखक हुए हैं जिनका देश में नाम रहा है...जिनके सहायक मेरे कई मित्र रहे हैं..वो बताते रहे हैं कि फलां लेख मेरा लिखा हुआ है..नाम उनका है...जो कई अखबारों में छपा है..एक मित्र हैं वो आजकल दूसरों के लिए किताबें लिखने का काम कर रहे हैं..वो पर्दे के पीछे रहते हैं और किताब पर नाम किसी और का जाता है। मेरे एक और मित्र हैं जो फिल्म इंडस्ट्री में हैं। वो नामी लेखकों के लिए सीरियल की स्क्रिप्ट लिखते हैं।
ये उदाहरण सिर्फ इसलिए हैं कि हम दिल और दिमाग के जरिए ही चलते हैं..दिल भावुकता के साथ चलता है और दिमाग धारणा के साथ चलता है। जो अपने लगते हैं...उनसे हम जुड़ना चाहते हैं..ये दिल से होता है..दिमाग पहले से तय करके चलता है कि हमें किसके साथ क्या व्यवहार करना है। जिसे हम नहीं जानते हैं उसके बारे में हम धारणा तय नहीं कर पाते हैं..जिसे हम बिलकुल नहीं जानते है..उसके बारे में तो हम शून्य रहते हैं..हां अगर उसका प्रोफाइल ठीक है तो हम एक शुरूआती धारणा बना लेते हैं..जैसे एक फेसबुक यूजर ने एक महिला को मित्र बनाया..कोई दिक्कत नहीं..ऐसे हजारों लाखों में हैं..लेकिन जब उन्होंने अश्लील मैसेज और फोटो भेजने शुरू किए तो उन्होंने उनका नाम उजागर किया और जब उनका पूरा प्रोफाइल निकाला गया तो फेसबुक के प्रोफाइल से ठीक उलट था। जाहिर है जब उन्होंने मित्र बनाया होगा तो केवल फेसबुक के प्रोफाइल को पढ़कर धारणा बनाई होगी..जिन्हें हम बिलकुल नहीं जानते हैं उनके लिखे हुए से हम धारणा बनाते हैं..यदि अच्छा लगता है तो जुड़ते हैं नहीं तो छोड़ देते हैं..
ये भी तय है कि यदि एक बार धारणा बदलती है तो आप फिर दोबारा उसे बदलते नहीं..जैसे कोई बेवसाइट है यदि उसमें कुछ अश्लील है...तो फिर आप उसे नहीं खोलते..क्योंकि धारणा बन जाती है। ये भी सच है कि हम या तो बहुत बड़े नाम से खुद को जोड़ना चाहते हैं या फिर बिलकुल अनजान से सहजता से जुड़ जाते हैं जो बीच के हैं..बराबरी के हैं..हम से थोड़े बड़े हैं..या थोड़े नीचे हैं..वहां हम जुड़ने में असहज महसूस करते हैं। जो बड़े नाम हैं..उनसे जुड़कर हम अपने को और दूसरों को दिखाना चाहते हैं कि हम भी करीब-करीब उसी स्तर पर हैं...जो बहुत छोटे हैं...उनसे हम सीखना नहीं चाहते..लगता है कि यदि वो सीख देने वाले होते तो इतने छोटे नहीं होते...
सहज हम केवल वहां हैं जिसका बहुत बड़ा प्रोफाइल है..या फिर जिसका कोई प्रोफाइल हमारे सामने नहीं है।
 ये सोच केवल लिखने पढ़ने के लिए नहीं..जीवन में हर वक्त हमारे साथ अनुभव होता है। चाहे घर-परिवार में हो..दफ्तर में हो...दोस्तों के साथ हो..पड़ोसियों के साथ हो..या फिर समाज में दूसरों के साथ...जैसे कोई अपनी महिला मित्र के साथ मूवी देख रहा है..या फिर रेस्टोरेंट में हैं..या फिर शापिंग कर रहा है..अगर कोई जान-पहचान का नहीं है तो अलग ही अंदाज होता है लेकिन कोई मिल जाए तो असहज हो जाता है। जितना आपका सर्किल है..आप समझ जाते हैं कि कल तक सबको इस बारे में जानकारी जरूर मिल जाएगी।
अब आपको तय करना है कि हमें काम के आधार पर धारणा बनानी है या फिर नाम के आधार पर..बाकी फिर....
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