Friday, August 14, 2015

हम follower क्यों हैं, leader क्यों नहीं?

1986 की बात है..मैं हाईस्कूल में था, मेरे चाचा जी अमेरिका से लौटे थे..वो इंग्लिश के प्रोफेसर थे..पिता जी बैंक में थे..इसलिए उन्हें बता रहे थे..अमेरिका में ऐसे बैंक हैं जहां कोई कर्मचारी नहीं रहता..एक मशीन लगी होती है..जिसमें बटन दबाओ..एमाउंट भरो..और जितना पैसा चाहो..निकाल लो..अपने आप रुपए निकल कर बाहर आ जाते हैं...पासबुक नहीं होती..आप अपना बैलेंस, हिसाब-किताब सब कुछ बटन दबाकर निकाल लेते हैं..मैं पास में बैठा ये रोचक बातें सुन रहा था...मुझे लगा कि चाचा जी कुछ ज्यादा ही फेंक रहे हैं..अमेरिका से आए हैं..कौन वहां देखने जा रहा...बात आई-गई होगी..लेकिन जब भारत में एटीएम लगी तो वो चाचा जी की बात याद आ गई...

दूसरा किस्सा उन्होंने सुनाया...वहां जितने भी स्टोर हैं..वहां सामान खुद उठाना पड़ता है..जो चाहे मर्जी ले लो..और काउंटर पर पेमेंट कर के चले जाओ..हमारे एक परिचित ने देखा कि यहां तो कोई देख नहीं रहा...एक किताब बैग में डाली और हमारे साथ निकलने लगे...गेट पर उन्हें रोक लिया और बताया गया कि उनके बैग में एक किताब है..उसका पेमेंट कर दीजिए...तीसरी आंख उन पर नजर रख रही थी..आज घर-घर में.. हर दुकान में..सीसीटीवी लगे हैं...
तीसरा किस्सा उन्होंने सुनाया कि वहां 30 मंजिल इमारत एक मिनट में पत्ते की तरह नीचे धराशायी हो जाती है..एेसे गिरती है जैसे ताश के पत्ते नीचे गिर रहे हों...इमारत का जितना हिस्सा गिराना है उतना ही गिरेगा..आसपास की इमारत को खरोंच तक नहीं आएगी...ऐसा विस्फोट लगाया जाता है..बिलकुल नापतौल कर..आज मध्यप्रदेश के इंदौर के एक्सपर्ट सर्वटे न जाने कितनी इमारतें इसी अंदाज में गिरा चुके हैं।
ये किस्से इसलिए याद आ रहे हैं कि हम दस से बीस साल पीछे क्यों चलते हैं..हैरानी की बात ये है कि इन सारी करामातों..तकनीकों और हुनर में भारतीयों का ही हाथ होता है...अमेरिका के जितने बड़े संस्थान हैं..भारतीयों का उनमें दबदबा है...लेकिन हम नहीं कर पाते..वो शुरूआत करते हैं...हम फालो करते हैं..इसीलिए हम आज बुलेट ट्रेन की सोच रहे हैं..स्मार्ट सिटी की सोच रहे हैं..और न जाने क्या-क्या सोच रहे हैं..सोचते ज्यादा हैं..करते कम हैं...बाकी फिर.....

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