Wednesday, October 28, 2015

बंदर,बवाल,बहस

सुबह मीडिया पर बिहार चुनाव की सरगर्मी थी, किसी दल के लिए नरमी थी किसी के लिए गर्मी थी, एंकर,गेस्ट,एक्सपर्ट,डाटा की बिसात बिछ चुकी थी, तभी बड़ी ब्रेकिंग ने एंकर को दहला दिया,वोटिंग की शुरूआत में ही एक बंदर नीतीश के पोलिंग बूथ पर हमला बोल चुका था, वन विभाग तो नहीं, कैमरे जरूर बंदर को कैद करने में जुटे थे, बंदर के बवाल की ब्रेकिंग चलने लगी थी, बहस बदल चुकी थी कि इतना बड़ा चुनाव,नीतीश का पोलिंग बूथ, इस बेखौफ बंदर को देखिए, मतदाताओं को डरा रहा है, लोकतंत्र के पर्व में खलल डाल रहा है, कहां है चुनाव आयोग, कहां है सरकार, गेस्ट भी बंदर के एक्सपर्ट बन चुके थे, राष्ट्रपति भवन और केंद्रीय मंत्रियों के आवासों से लेकर मीडिया के वाहनों का बंदरों से नुकसान पर मुद्दा गर्माने लगा था, तस्वीरों में हर दो सेकंड में बंदर एक बार काट जा रहा था, एंकर बता रहा था कि यही है वो जालिम बंदर, जिसने इस बुजुर्ग महिला को नहीं बख्शा, कुल मिलाकर बंदर बड़ा ही मंझा हुआ राजनेता सा लगा..जिसने आम आदमी को काट कर एक शाम बंदर के नाम की जगह पूरा दिन अपने नाम कर लिया. रोजाना काटने में राजनीति नहीं थी, चुनाव के दिन चुनने से बंदर खुश हो रहा था, बुजुर्ग महिला रो रही थी, फिर भी राजनीति हो रही थी.

चुनाव कैसे लड़ा जा रहा है?

एक मित्र आजकल बहुत व्यस्त हैं.पहले सलाह लेने के लिए हमसे समय मांगते थे, अब हाथ ही नहीं आ रहे थे, कहने लगे, बिहार चुनाव में व्यस्त हैं, मैंने कहा..भाई, आप न तो नेता हैं, न मीडिया में हैं, फिर आप चुनाव में क्या गुल खिला रहे हैं, कहने लगे, भाई तुम अपने हो, इसलिए बता देता हूं, आजकल पांचों उंगलियां घी में हैं और सिर कड़ाही में है, असल चुनाव तो मैं ही लड़वा रहा हूं, शुरूआत लोकसभा चुनाव से की थी, देखा..कैसी बंपर जीत मिली, अबकी बार भी पक्की है लेकिन मैंने पार्टी बदल ली है,पहले किसी और को जिताया, अबकी बार किसी और को जिता रहा हूं, विपक्ष को जिताना आसान था, पक्ष को जिताना मुश्किल, लेकिन जिता दिया तो फिर बल्ले बल्ले है। मैंने कहा-पहेलियां मत बुझाओ, आपका काम क्या है, बोले..मूर्ख हो, मूर्ख रहोगे, असल चुनाव तो मैं लड़ा रहा हूं, जो मैदान में दिख रहा है, जो मीडिया में छाया हुआ है, जो सोशल मीडिया पर विवाद चल रहे हैं, ये किसने पैदा किए हैं, इसकी स्क्रिप्ट मैं ही लिख रहा हूं. चुनाव अब सामने से नहीं लड़ा जाता है, सब कुछ तकनीकी हथियारों से लड़ा जाता है, कंप्यूटर, लेपटाप और मोबाइल से..नहीं समझ आया तो आपके लिए एक बानगी पेश करता हूं, ये स्क्रिप्ट तैयार है, आज हमारे नेता इसे सभा में पढ़ेंगे, इस पर ये विवाद शुरू होगा..देखते जाईए..वाकई सुबह बताया, शाम को वही हुआ..विकास को कैसे हवा किया..पता चला, बीफ से लेकर शैतान, ब्रह्मपिशाच, थ्री इडियट, चुटकले, कहानी-किस्से, पुराने वीडियो से लेकर नए स्टिंग तक सब कुछ पर काम चलता रहता रहता है, हर चरण की अलग तैयारी है, किस मुद्दे को हवा देना है, किसको हवा करना है, टीम पूरी चौकस है, मैं नतमस्तक था उनके आगे, वाकई चुनाव लड़ कोई रहा है, लड़ा कोई रहा है और लड़खड़ा कोई रहा है.

Monday, October 19, 2015

बाबा रे बाबा

तो साहब, हम तैयार हो रहे थे बाबा जी से मिलने के लिए, ऐसे भविष्य दृष्टा, जो सब बता देते हैं, चुटकियों में बड़े-बड़ों की बड़ी से बड़ी समस्या को हल कर देते हैं.वाकई अखबार उठाया तो उनकी जय-जयकार की खबरें और विज्ञापन भरे पड़े थे, समझ में नहीं आ रहा था कि खबर विज्ञापन से उपजी है या फिर उनकी महिमा से विज्ञापन उपजा है, टीवी पर एंकर कह रही थी कि आप कहीं मत जाईए, ये कार्यक्रम इसी चैनल पर लगातार देखिए, वो ये भी बता रही थी कि चप्पे-चप्पे पर उनके रिपोर्टर और कैमरे तैनात हैं. तैयार तो हो गया, चलने के पहले फिर डांट पड़ी..एक तो इतने बड़े बाबा से मिलने जा रहे हो, ये तो ऊपर वाले की कृपा है और हमारा व्यवहार है जो पास मिल गया, खाली हाथ जाओगे, नाक कटवाओगे, ड्राईफ्रूटस और फ्रेश फ्रूटस ले चलो, जेब में आखिरी पांच सौ का नोट था, कभी खुद फ्रूटस नहीं खाए, लेकिन भूत और वर्तमान से डरा था, इसलिए भविष्य सुधारने के लिए पांच सौ का नोट कोई ज्यादा नहीं था, तैयार होकर पत्नी के साथ बाबा के कार्यक्रम के लिए निकला, देखा..बैनर पोस्टरों की भरमार है.एक तरफ बाबा बुला रहे हैं, दूसरी तरफ सांसद,मंत्री, उद्योगपति हाथ जोड़े मुस्करा रहे हैं. कार्यक्रम स्थल पहुंचा, जहां मेला था,भक्तों का रेला था, लग रहा था कि हर कोई उनका चेला था. बाबा छाए हुए थे, बड़े-बड़े एलईडी स्क्रीन पर उनका महिमा मंडन था, कई सीएम और केंद्रीय मंत्री आ रहे थे, उनके समर्थक मौके पर ही राजनीति की बिसात बिछा रहे थे, मंच से बाबा के एक चेले बता रहे थे कि ये सब बाबाओं को पीछे छोड़ चुके हैं, विदेशों में भी उनकी धूम है, वो तो नोएडा से उनका खास लगाव है, इसलिए आए हैं, वर्ना, सलमान की तरह उनके पास भी सालों डेट खाली नहीं है..बाबा..मदेव,...मल बाबा,बाबा..साराम...धे मां सबको पीछे छोड़ चुके हैं. सोच रहा था, ऐसे दिव्य पुरुष से मुलाकात हो जाए, तो जीवन तर जाए..


दूसरे दिन....


बाबा जी के एक खास भक्त से मुलाकात हो गई, वो भी बाबा जी जितने ही भाव खा रहे थे, उन्हें भी लोग चारों ओर से घेरे हुए थे, हम भी ठस लिए, भक्त बता रहे थे, बाबा जी के पंद्रह राज्यों में आश्रम बन चुके हैं, अमेरिका के बाद स्विटजरलैंड में भी भव्य आश्रम हैं. वहां केवल वीआईपी ही जा पाते हैं।बाबा योग के जरिए भोग सिखाते हैं, समुद्र के बीचोंबीच आध्यात्म में लीन होकर जो सुख मिलता है, वहां न स्त्री न पुरुष का बोध रहता है, जीवन में सुख, शांति और समृद्धि ऐसे ही आध्यात्म से उपजती है। हरिद्वार में पीठ बन रही है, किसी ने पूछा, बाबा जी का आशीर्वाद कांग्रेस को है या बीजेपी को, भक्त ने आंखें लाल की, बाबा जी समय के साथ चलते हैं, जो अच्छा करता है, उसी के साथ रहते हैं, उनके चरणों में कांग्रेस, बीजेपी क्या, सारे दल पड़े रहते हैं, देख नहीं रहे हो, कितने मंत्री, सीएम यहां डेरा डाले हैं, सबको आशीर्वाद की दरकार है, बाबा जी थोड़ी ही देर में स्पेशल प्लेन से लैंड करने वाले हैं, आप लोग बैठ जाईए, मेरा पूरा जोर इस बात पर था कि बाबा जी से मुलाकात हो जाए, अपना काम बन जाए, तभी अफरातफरी सी मच गई, बाबा हवा से धरती में लैंड कर गए थे, थोड़ी ही देर में वो एयर लिफ्ट के जरिए कमल के फूल के बीच मंच पर अवतरित हुए, बड़े-बड़े लोग पैरों में लोट रहे थे, थोड़ी ही देर में बाबा का चेहरा सामने आया, लगा कि बाबा को कहीं देखा है, फिर सोचा, हर बड़े आदमी के साथ हम यूं ही रिश्ता जोड़ने की फिराक में रहते हैं.


तीसरे दिन....

बाबा बोले, बम भोले, बम को छोड़िए, भोले को अपनाईए,मैं भी आप की तरह आम इंसान था, अचानक ज्ञान चक्षु खुले, हरिद्वार, ऋषिकेश की पहाड़ियों में ईश्वर की शरण में गया, ईश्वर ने प्रसन्न होकर कहा कि तुममें तो मौजूदा बाबाओं से ज्यादा कैपेसिटी है, कहां माया-मोह, घर-परिवार के चक्कर में फंसे हो, तुम्हें तो संसार की दशा-दिशा तय करनी है, जाओ, सबको सिखाओ, ज्ञान दो, तुम लोगों को ज्ञान दोगे, लोग तुम्हें धन-धान्य से भरपूर कर देंगे, जितना ज्ञान बांटोगे, उतना ही वैभव तुम्हारे पास आएगा, जब माया-मोह की इच्छा थी तो मेरे पास कुछ नहीं था, अब सब है, अकूत संपत्ति हिलोरें ले रही हैं, लोग मना करने पर भी दे जा रहे हैं, लोग ज्ञान अर्जित कर लेते हैं, लेकिन बांटते नहीं, जितना बांटोगे, उतना फायदे में रहोगे, नेताओं और मीडिया से सीखो, मेरे पास इनसे भी ज्यादा ज्ञान है, इसलिए ये हमसे ले जा रहे हैं.प्रवचन के बाद मर्सिडीज बैंज, आडी, लैंड क्रूजर जैसी गाड़ियों के साथ बाबा का काफिला निकला, पास में ही देश के बड़े उद्योगपति के बंगले पर बड़े आग्रह के बाद वो जा रहे थे, बड़ी मुश्किल के बाद एक खास भक्त के जरिए हम उनके कक्ष में दाखिल हो ही गए, चारों तरफ अभिनेताओं की तरह वो बाउंसरनुमा भक्तों से घिरे हुए थे, कई माडल सरीखी भक्त बालाएं उनके इर्द-गिर्द मंडरा रही थीं। सामने काजू-किसमिस, बादाम,काजू कतली, सेब, अनार जैसे मेवे-फल के थाल सजे हुए थे, भक्त चाहते थे कि बाबा केवल झूठा कर दें, उनकी लाइफ बन जाएगी. भक्त ने बाबा के कान में कुछ फूंका, बाबा ने चमकती आंखों से मुझे घूरा, हां मैं मुंडी हिलाई..


चौथे दिन....

बाबा ने खास भक्त को आंखों ही आंखों में इशारा किया और कक्ष में जो भक्त बीजेपी की तरह जमा थे, सब कांग्रेस की तरह खर्च हो गए. यहां तक कि खास भक्त भी बाहर, अब हम थे और बाबा थे, बाबा ने मेरी आंखों में झांका, मुस्कराए,बोले..बच्चा..मैं तेरा भूत, वर्तमान, भविष्य सब जानता हूं. एक पत्नी, एक बेटी और एक तू, 23 साल से पत्रकारिता करते हुए जीवन घिसट रहा है,शुरू से परेशान था, अब तक है, कुछ जुगाड़ के लिए आया है.मेरी शरण में जो आता है, उसका काम बन जाता है,तू तो बाबाओं से दूर रहने वाला स्वाभिमानी था, इसीलिए निरीह प्राणी था, दूसरों को सलाह दे-देकर खुद बर्बाद हो गया, तेरी सलाह से न जाने कितने बन गए, तू खुद नहीं बन पाया, मैंने अपने भीतर झांका, बन गया, तू भी झांक ले,तेरा जीवन सुधर जाएगा, बाबा की बोली कभी मीठी गोली, कभी बंदूक की गोली लग रही थी, बोले-अकेले आया हूं, अकेले ही जाऊंगा, ये सब तेरा है, तू नहीं होता तो मैं न होता, बाबा का आध्यात्म गले में हड्डी की तरह अटक रहा था, मैं उनकी बात से हड़बड़ाया, बाबा भी हड़बड़ाए, सुधार किया, तेरा मतलब, तेरे जैसे भक्तों से है.ज्यादा दिमाग पर जोर मत डाल, मैं पहली बार किसी के बाबा के चरणों में लोट चुका था, भूतो न भविष्यति..वाकई बाबाओं के बारे में मेरी सारी धारणाएं बदल चुकी थी, मुझे मानो साक्षात ब्रह्म के दर्शन हो रहे थे, आंखों से आंसू बह रहे थे, भक्त और ईश्वर का मिलन हो रहा था, बाबा ने मुझे उठाया, गले से लगाया, आंखों से आंसू पोंछे..मुस्कराए..जैसे ही बाबा से नजरें मिलाईं..बाबा ने एक आंख मारी, बच्चा..नहीं पहचाना..तूने ही तो कहा था..कि बाबा बन जा, देख..आज गाड़ी है, बंगला है, जमीन है जायदाद है, नेता,मीडिया, बिजनेस मैन सब चरणों में है, यहां तक कि तू भी..जो मेरा सलाहकार था, बच्चा..आजा..गले लग जा..आज से तू फिर मेरा सलाहकार हुआ, गुरू गुड़ ही रहा, चेला शक्कर हो गया. इति बाबा कथा समाप्तम.


Sunday, October 18, 2015

सपने जो जगने नहीं देते हैं...

बड़ा ही दिलचस्प नजारा था, आज मन की सारी हसरतें पूरी हो रही थीं, सबसे पहले मोदी को गरियाया, फिर केजरीवाल को कोसा, उसके बाद लालू यादव की खिल्ली उड़ाई, मुलायम के पैंतरे बदलने पर मुस्कराया, उसके बाद लगा कि ये कुछ नहीं कर सकते हैं, क्यों न खुद ही हाथ आजमा लूं, सो..कुछ आजम से लिया, कुछ ओवेसी से लिया, हार्दिक पटेल से आरक्षण लिया, साक्षी, योगी आदित्यनाथ और साध्वियों से लिया,बीफ को ध्यान में रखा, सारा मसाला तैयार किया और दनादन हरकतें कर डालीं, टीवी-अखबार वालों को बुलाकर बयान दे डाले, फेसबुक और ट्विटर पर पोस्ट डालनी शुरू की..अचानक ही चर्चाओं में घिर गया, मीडिया वालों के फोन आने लगे, एक बाइट दे दीजिए, आज शाम गेस्ट बन जाईए, समझ में नहीं आ रहा था, कहां जाऊं, किसको दूं, किसको नहीं दूं, भरपूर भाव खा रहा था, बड़ा मजा आ रहा था, ओबी वैन बाहर खड़ी हुई थीं, पत्नी-बच्चे कह रहे थे, आपके पास वक्त नहीं है, पड़ोसी जल रहे थे, रिश्तेदारों के फोन नहीं उठा रहा था, अचानक ही लोकप्रियता से मेरा घमंड सातवें आसमान पर था, कोई अपने बच्चे के लिए नौकरी मांग रहा था, कोई ठेके के लिए सिफारिश की विनती कर रहा था, कोई गुलदस्ते और मिठाई के डिब्बे घर पर पटक जा रहा था, मन ही मन खुश था, ऊपर से गंभीर था, सोच रहा था कि केजरीवाल और हार्दिक पटेल के बाद अगला सीएम मैं ही बनने वाला हूं, बिना पूंजी के, कुछ ही समय में इससे बढ़िया बिजनेस कोई हो नहीं सकता था, सब कुछ बढ़िया चल रहा था, हर पल तरक्की की नई मंजिलें छू रहा था कि अचानक भूकंप सा आया, पलंग से नीचे गिरा, लगा कि किसी ने लात मारी है..देखा तो पत्नी खड़ी थी, जी भर के कोस रही थी. संडे है तो इसका ये मतलब नहीं. 12 घंटे से सो रहे थे, घर के सारे काम क्या तुम्हारा...करेगा? मेरे साथ ही मेरे सपने जमींदोज हो चुके थे..आगे क्या हुआ..कल बताऊंगा?

आगे क्या हुआ....


नींद से हड़बड़ा कर उठा तो खुद को कुंभकर्ण सा महसूस कर रहा था और पत्नी को साक्षात दुर्गा, वो जगत जननी की तरह सुबह-सुबह (करीब 10 बजे)मुझे झकझोर रही थी, कह रही थी, दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, तुम सोते रह जाओगे, देश की तो छोड़ दो, कालानी का भी तुम्हें पता नहीं, रा एजेंट की तरह पत्नी बोले जा रही थी, अरे..नोएडा स्टेडियम में बहुत बड़े बाबा आ रहे हैं, तुम तो कुछ नहीं कर पाओगे, बाबा जी बहुत बड़े सिद्ध हैं, हजारों की भीड़ उमड़ने वाली है, पूरे शहर में पोस्टर लगे हैं, अखबारों और टीवी में खबरें चल रही हैं, बड़े-बड़े नेता उनकी शरण में पहुंच रहे हैं,सीएम शीश नवा रहे हैं, यूं ही वो देश नहीं चला रहे, बाबा ज्ञानी हैं, अंतर्यामी है, हमें हमारा धर्म बताते हैं, योगा सिखाते हैं,सेहत बनाते हैं, भविष्य में झांक लेते हैं. भूत बिगड़ गया, वर्तमान का सत्यानाश हो गया, कम से कम भविष्य ही सुधार देंगे।बाबा सब कुछ करने में समर्थ हैं, चुनाव के टिकट वो दिलवाते हैं, सरकारें बना देते हैं, गुरूओं के गुरू हैं, नाम है गुरू घंटाल, वो तो मैं हूं, जो कालोनी की खबर रखती हूं, पड़ोस के गुप्ता और गुप्ताईन जी की बाबा तक पहुंच हैं, वो पांच पास लेकर आए हैं, अगर मैं वक्त पर नहीं पहुंचती तो ये आखिरी पास भी गया था, उन्होंने कहा है कि वो आपको बाबा में अकेले में जुगाड़ कर मिलवा देंगे, मांग लेना, एक चुटकी में बड़ा सा बड़ा काम कर देंगे, ज्यादा स्वाभिमानी न बनना, लोट जाना चरणों में, गिड़गिड़ा लेना जमकर, खुद का बुरा मुंह न देखो तो मेरा और बेटी का ही देख लेना, कम से कम हम पर ही रहम खा लेना...मरता..क्या न करता..रात के सपने टूट चुके थे, वर्तमान के सच से सामना कर रहा था, बाबा के यहां जाने की तैयारी में जुट गया था...आगे क्या हुआ..कल बताऊंगा.

Wednesday, October 14, 2015

सलाह देकर खुद फंस गया...

एक मित्र साहित्यकार हैं, कुछ दिनों से दिख नहीं रहे थे, सोशल मीडिया से भी गायब थे, मैंने फोन लगा ही दिया..भाई कहां हो, बोले..कुछ नहीं..कैसे अपना मुंह दिखाऊं, मैंने पूछा..अरे..ऐसा क्या हो गया..क्या गड़बड़ हो गई..जो मुंह दिखाने लायक नहीं रहे..क्या किसी लड़की-वड़की का चक्कर खुल गया..नहीं भाई..कई साहित्यकार पुरस्कार लौटा चुके हैं..उनकी बड़ी चर्चा हो रही है..टीवी पर बहस में हिस्सा ले रहे हैं..अखबारों में इंटरव्यू लिया जा रहा है..सोशल मीडिया पर उनकी प्रशंसा और आलोचना हो रही है..मौज ही मौज है..मुझे कोई पूछ ही नहीं रहा..मुझे तो पुरस्कार मिला ही नहीं। मैं किसी से कम बड़ा साहित्यकार नहीं..क्या केवल पुरस्कार मिलने या लौटाने से ही कोई बड़ा बन जाता है..

मैंने तो इतना लिखा है मुझे किसी ने पुरस्कार नहीं दिया..पुरस्कार पाने का मापदंड आखिर क्या है..पुस्तकें ज्यादा मात्रा में बिकना है या फिर मीडिया में ज्यादा चर्चा है..या फिर समाज का ज्यादा भला करना है। मेरे से पूछने लगे कि आप ही बताओ..आखिर सही मापदंड क्या है पुरस्कार पाने का..
मित्र साहित्यकार को शांत किया..और कहा कि आप हमारे पास आ ही जाओ..मापदंड भी बता दूंगा..घर आ गए..बड़े बेचैन थे..बताईए..क्या मापदंड है..मैंने पूछा सत्ताधारी पार्टी में आपकी अच्छी जान-पहचान है..बोले नहीं...मैंने कहा कि कोई बड़ा..बहुत बड़ा साहित्यकार आपको रिकमंड करता है..बोले नहीं..कुछ ऐसा लगा है जिससे देश में कोई विवाद खड़ा हुआ हो..बोले नहीं..तो फिर आपके पास क्या है..जो आप लिखते हो..वो तो मैं भी लिख दूंगा..लिखवा लूंगा..फिर मैने पूछा..अच्छा मैं जुगाड़ करवाता हूं..पैसा है आपके पास...बोले नहीं...फिर साहित्य खुद लिखो..खुद पढ़ो..अरे जुगाड़ नहीं तो पैसा ही खर्च कर दो..ऐसी तमाम संस्थाएं हैं जो आपके ही पैसे से आपको पुरस्कार दे देंगी..नहीं तो ऐसी संस्था आप ही खड़ी कर दो..आप ही चीफ गेस्ट..खुद भी पुरस्कार लो..दूसरों को भी बांटो...आप भी देखो..मैं भी देखता हूं कोई उन साहित्यकार को पुरस्कार दिलवा दो...

दूसरे दिन....

हमारे साहित्यकार मित्र आज फिर बेचैन दिखे, कहने लगे..आप पुरस्कार मिलने के लिए तमाम क्वालिटी गिना रहे हो, जुगाड़ बता रहे हो लेकिन अब तो लगता है कि उन्हें पुरस्कार ठीक नहीं मिला..मैंने पूछा..भाई..कल तक तो आप इसलिए मायूस थे कि पुरस्कार लौटाने के लिए मन मचल रहा है..और पुरस्कार कैसे मिलेगा?..अब कह रहे हो कि ठीक नहीं मिला..ऐसा क्या हो गया? बोले..चर्चा साहित्यकारों की हो रही है..और रोटियां सेंक रहे हैं बाकी सब...आप तो हंसी-मजाक में मजे ले रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर नाबालिग भी धड़ल्ले से लिख रहे हैं..कह रहे हैं कि उन्हें मिलेगा तो लौटाएंगे नहीं..जब मिला था तब कहां थे..पहले क्यों ले लिया..अब क्यों लौटा रहे हो..अरे लौटाना है तो पैसे लौटाओ..कोई कह रहा है कि राशन कार्ड लौटाओगे तो मानेंगे..नहीं तो हम लौटा देंगे..कोई मजे ले रहा है.कोई धमका रहा है..कोई हम इतना गिरा दे रहा है कि हम कभी जीवन में उठने की भी न सोच पाएं..अब हमें इन साहित्यकारों पर गुस्सा आ रहा है कि भाई..या तो पहले लेना नहीं था..या फिर लौटाना नहीं था..कम से कम हम जैसे साहित्यकारों की तो सोचते..कुछ जीवन बेहतर होने की उम्मीद में थे कि अब गली-गली में बच्चे से लेकर बूढ़े... यहां तक कि साहित्य के मामले में अनपढ़ भी जमकर घूंसे-लात चला रहे हैं। कोई कह रहा है कि साहित्यकारों की मानसिकता की जांच होनी चाहिए..लोग हमारे राजनीतिक दलों के कनेक्शन तलाश रहे हैं..लग रहा है कि आफत मोल ले ली है। कोई समर्थन में लिख रहा है, कोई विरोध में..जिसको कुछ नहीं समझ आ रहा है वो दोनों को ही कोसने में जुटे हैं.और तो और.सुबह कुछ कह रहे हैं..शाम को कुछ कह रहे हैं. क्या साहित्य ही छोड़ दूं?..कुछ दूसरा काम-धंधा देखता हूं..मैंने कहा कि भाई..इतने से डर गए..कम से कम चर्चा में तो आए..एक-दो दिन रुक जाओ..नए मुद्दे की तलाश चल रही है..जैसे ही मिल जाएगा..आपको कोई पूछने वाला नहीं रहेगा..जो चाहे करना..बाकी भी जो मर्जी आए..कर ही रहे हैं......


तीसरा दिन.....


गजब हो गया, जिन साहित्यकार मित्र को साधु-संत बनने की सलाह दी थी, वो वाकई लापता हो गए हैं, उनकी पत्नी का फोन आया, क्या भाई साहब, आप भी उलटी-सीधी सलाह देते रहते हैं. ये कल बोले कि आपने कोई शानदार आईडिया बताया है, साहित्य में कुछ नहीं रखा है, बिना पूंजी के चोखा धंधा पता चला है, पूरा परिवार मजे करेगा, गेरूआ वस्त्र लेने जा रहा हूं, तबसे गायब हैं, अब आपको ही भुगतना होगा, हमारे परिवार को भी पालना होगा, अब मुझे समझ आया, मुफ्त की सलाह कितनी भारी पड़ सकती है, लेना एक, न देना दो, मैं तो ठलुआ था ही, सलाह देकर और मुसीबत मोल ले ली. उनकी पत्नी ने हमारे हिस्से की जी भरके गालियां निकाली, मैं भी सर झुकाए सुनता रहा, बोलीं, नेता ही बना देते, बीफ पर बयान दिलवाते,सोशल मीडिया पर दो-चार से शेयर करवाते, दो-चार से गालियां दिलवा देते, दुकान चल निकलती, गुमटी तो बन ही जाती, अब आप ही भुगतिए, खुद तो कुछ बन नहीं पाए, दूसरों की दुनिया में जहर घोल रहे हैं, आप पत्रकार थे, क्या उखाड़ लिया, समाज को सुधारने चले थे,खुद नहीं सुधर पाए, उनकी बात मन को कचोट रही है, खुद कुछ किया नहीं, सलाह दुनिया को बांट रहा हूं, तो दोस्तो, मेरे मित्र साहित्यकार गेरूआ वस्त्र में कहीं मिले तो मुझे जरूर खबर करना, बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले ली है, आप भी सोचना, सलाह देने के पहले खुद में झांक जरूर लेना.बाकी फिर....

Tuesday, October 13, 2015

कालिख पोतो या पुतवाओ, दोनों में फायदा है..

एक मित्र से चर्चा हो रही थी, बड़े परेशान थे, परेशान इसलिए थे कि दूसरों से पब्लिसिटी में पिछड़ रहे थे, बोले, कुछ उपाय बताओ, क्या किया जा सकता है, मैंने उन्हें सलाह दी कि कालिख पुतवा लो, बोले..अरे..ये क्या कह रहे हो, ये कोई बात हुई, जब उन्हें इसके फायदे बताए तो बात जंच गई, लेकिन फिर मायूस हो गए, कालिख तो पुतवा लूंगा.पर पोतेगा कौन.

.मैंने कहा इसकी चिंता मत करो, आजकल पोतने वालों की कमी नहीं है, एक बड़ी कंपनी इस फील्ड में उतर चुकी है, बड़े पैमाने पर भर्तियां चल रही हैं, करोड़ों का प्रोजेक्ट है, इस प्रोजेक्ट में कई उद्योगपति, राजनेता और मीडिया के दिग्गज शामिल हो रहे हैं। मित्र फिर मायूस हुए..अरे यार..इतना बड़ा प्रोजेक्ट है तो फीस भी ज्यादा लेगा..मैंने कहा चिंता मत करो, शख्सियत के हिसाब से रेट तय होता है, आपकी शख्सियत ज्यादा बड़ी नहीं, इसलिए आपका एक-दो लाख में काम हो जाएगा, लेकिन जब आप पोपुलर हो जाओगे तो आपको फिर कालिख पोतने की फीस बढ़ जाएगी। कंपनी ने जो ढांचा तैयार किया है..उसके मुताबिक कालिख कौन सी पुतवाओगे, तारकोल, कलर या फिर कीचड़, उसके हिसाब से भी पैसा लगेगा, मीडिया की मौजूदगी में पुतवाओगे तो फीस और भी ज्यादा लगेगी।
आप जितने का पैकेज लोगे, उसी हिसाब से कालिख का स्टंडर्ड होगा, उसी हिसाब से मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रचार प्रसार होगा, उसी हिसाब से आपको कोसने वाले नारे लिखे जाएंगे..उसी हिसाब से जगह तय होगी, सफेद ड्रेस पर कालिख के ज्यादा रेट होगे..ब्लैक एंड व्हाइट पर तो ही पूरी दुनिया चल रही है। ये आपकी और कंपनी के बीच गोपनीय होगा, आधा पैसा पहले लगेगा, आधा पैसा कालिख पुतवाने के बाद, मित्र को बात जंच गई है, फिर बोले, ये कंपनी कौन है, मैंने कहा कि अब आप इस जुगाड़ में होगे कि पुतवाने में ज्यादा खर्च है तो पोतने का काम ही मिल जाए..जाहिर है कालिख पुतवाने के लिए हिम्मत चाहिए..पैसा चाहिए..इसीलिए पुतवाने से ज्यादा पोतने वाले घूम रहे हैं...इसमें फायदा ही फायदा है,मित्र को बात जंच गई है, उन्हें लग रहा है कि यदि ज्यादा बड़े आदमी बनना है तो कालिख पुतवाना होगी और यदि सेफ गेम खेलना है..परिवार पालना है तो कालिख पोतने वाली कंपनियों में नौकरी तलाशनी होगी। वैसे ये इंडस्ट्री ज्यादा ग्रोथ करने वाली है क्योंकि ये बिजनेस अभी संगठित नहीं है, कुछ ही लोग इसमें उतरे हैं..अलग-अलग छोटे स्तर पर काम चला रहे हैं, यदि इसमें विदेशी निवेश हो जाए और भारत में ये उद्योग काफी आगे जा सकता है। .पेंट और कलर उद्योग को इससे बढ़ावा मिलेगा। बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा..अभी जो काम वो किसी के बहकावे में आकर में फ्री में कर देते है, उसकी बाजिब कीमत मिलने लगी। देखिए क्या होता है...बाकी फिर.....

Sunday, October 11, 2015

फिर तो दिक्कत होगी ही नहीं....

प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि यदि सवा सौ करोड़ देशवासी ठान लें तो देश साफ हो जाएगा। बिलकुल सही कहा है कि उन्होंने..... दरअसल सफाई अभियान क्या, किसी भी क्षेत्र में यदि देशवासी ठान लें तो देश की कायापलट हो जाए और सरकारी अधिकारी-कर्मचारी ठान लें तो सरकार का कायापलट हो जाए।

जब कोई ट्रैफिक पुलिस चौराहे पर खड़ा होने की बजाए इधर-उधर टहलता है और लोग ट्रैफिक नियम खुलेआम तोड़ते जाते हैं..तो देश कैसे सुधर पाएगा..जब ट्रैफिक पुलिस वाला ट्रैफिक नियम तोड़ने पर रिश्वत मांगेगा तो देश कैसे सुधर पाएगा..जब हम किसी भी दफ्तर में किसी भी काम के लिए जाते हैं तो बिना रिश्वत के कोई सुनवाई नहीं होती। आपके कागज भले ही सही हों या फिर आपका काम सही हो..लेकिन बिना लेन-देन के आप टहलते रहें..कोई सुनने वाला नहीं।
ऐसे ही सफाई का मामला है। हम अपने घर में रहते हैं तो या तो खुद सफाई करते हैं या फिर करवाते हैं लेकिन गंदगी पसंद नहीं करते लेकिन जब घर से बाहर निकलते हैं तो सब भूल जाते हैं..और जहां मन होता है..फेंकना शुरू कर देते हैं। विदेशों में ऐसा नहीं होता..वहां गंदगी फैलाने पर तत्काल जुर्माना लग जाता है। फाइन इतना तगड़ा होता है कि अगली बार से वो भूल ही नहीं सकता। दरअसल सवा सौ करोड़ लोग जो भी ठान लेंगे..वह हो जाएगा। सवा सौ करोड़ देशवासी तो छोड़ दीजिए..सरकार के ही लोग सुध जाएं तो देश सुधर जाएगा। जब ईमानदारी की कसमें खानें वाले अरविंद केजरीवाल के मंत्री एक-एक कर बेनकाब होते हैं तो देश कैसे सुधर जाएगा..जब बिहार ने नीतीश कुमार के मंत्री स्टिंग आपरेशन में फंस जाएं तो देश कैसे सुधर पाएगा।
सवाल ये है कि हम खुद से अपेक्षा नहीं करते..दूसरों से करते हैं..हम चाहते हैं कि सामने वाला ईमानदार बने और खुद कमाई की होड़ में अंधे हुए जाते हैं। दूसरों की मिसाल पर हम खूब वाह-वाह करते हैं और जब अपनी बारी आती है तो चुप्पी साध जाते हैं या फिर बगलें झांकने लगते हैं। खुद करते हैं तो बड़ा कष्ट होता है और दूसरा करता है तो उसे जी भर के कोसते हैं। कहते हैं कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे..यही सवाल ईमानदारी का है...कि हम क्यों शुरूआत करें..हम तो कर देंगे लेकिन हमें पता है कि सामने वाला नहीं करेगा..मतलब हमारा ही नुकसान होगा..जब तक ये सोच बनी रहेगी..कितने ही अभियान चला लें..जब तक मन साफ नहीं होगा..देश साफ नहीं हो पाएगा...बाकी फिर.....

Thursday, October 1, 2015

हमसे बड़ा कोई झूठा नहीं

अक्सर हम किसी काम के लिए एक ही दुकान तय कर लेते हैं..जैसे बाइक ठीक करानी है तो कोशिश यही होती है कि उसी मैकेनिक के पास जाएं..जिसके पास हम जाते रहे हैं। यदि आप दूसरे मैकेनिक के पास जाते हैं तो उसका सबसे पहला जुमला रहता है कि अरे..साहब..इसके पहले किससे ठीक कराई थी..कबाड़ा कर दिया। सब कुछ बिगाड़ दिया। किसी हेयर सैलून को बदल कर बाल कटवाने पहुंचते हैं तो बोलता है कि अरे..कहां कटवाते थे..किसी इलेक्ट्रानिक सामान की रिपेयरिंग के लिए जाते हैं तो बोलता है कि भाई..सोच-समझ कर जाया करो..पूरी सेटिंग बिगाड़ दी है।

जीवन में हम इतनी औपचारिकताएं निभाते हैं जिसकी कोई सीमा नहीं..झूठ भी जमकर बोलते हैं। बड़ी बातों के लिए भी और छोटी-छोटी बातों के लिए। गांधी जी सत्य और अहिंसा पर चलने को कहते थे जिन्हें हमने बिलकुल ही त्याग रखा है। मुझे तो आज तक कोई भी ऐसा शख्स नहीं मिला कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारने को कहे..और वो दूसरा गाल कर दे कि यहां भी मार लो..बल्कि होता ये है कि यदि किसी ने एक थप्पड़ मारने की हिमाकत की तो हम कई थप्पड़ों से उसका जवाब देने की कोशिश करते हैं। हिंसा केवल शारीरिक ही नहीं होती..मानसिक भी होती है और मानसिक हिंसा शारीरिक से ज्यादा खतरनाक होती है। किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए हम मन में प्लान तैयार कर लेते हैं और सामने वाले को नुकसान पहुंचाने के मिशन में जुट जाते हैं। सामने वाले को तब पता चलता है जब उसका नुकसान हो जाता है। चाहे नौकरी में प्रतिस्पर्धा हो या बिजनेस में..अपने साथ वाले को पनपने नहीं दे सकते। हम हमेशा घात लगाए रहते हैं कि वो नीचा कैसे देखे और जब किसी का नुकसान होता है तो इतना मजा आता है कि पूछो मत...मन इतना प्रसन्न होता है दूसरे को परेशान देखकर कि लगता है कि जश्न मना डालें। मोबाइल पर दूसरों की परेशानी का प्रसारण करने के लिए हम व्याकुल रहते हैं। नहीं भी हुआ..तो अफवाहें फैलाते हैं कि उसका तो काम तमाम होने वाला है..ज्यादा दिन नहीं रह पाएगा..अगर कोई तरक्की करता है तब भी हम बाज नहीं आते..अरे..क्या होता है..झूठ बोलकर पा लिया..जब पोल खुलेगी तो बर्बाद हो जाएगा..उसे तो काम नहीं आता है..केवल हम ही जानकार है।
जिससे काम होता है..उसकी झूठी तारीफ में इस कदर जुट जाते हैं कि सामने वाला भी शर्म से पानी-पानी हो जाए..और सोचने लगे कि हम इतने महान कबसे हो गए। जब कोई काम कर देता है तो उसकी तारीफ करते हैं कि वो तो बहुत बढ़िया आदमी है..जब काम न करे..तो उसे नाकारा..निकम्मा..झूठा..न जाने कितने सर्टिफिकेट देने के लिए तैयार रहते हैं।
यदि हमसे कोई मिलना चाहता है तो हम तभी मिलेंगे जब हम उससे मिलना चाहेंगे..नहीं तो बहाना बना देंगे कि कुछ काम है..फिर मिल लेंगे। यदि हमें किसी से बात करनी है तो तभी फोन उठाएंगे जब उससे बात करने का मन होगा..अगर गलती से फोन उठा भी लिया तो जल्द से जल्द पीछा छुड़ाने के लिए परेशान रहेंगे। हर रोज सुबह से लेकर रात तक न जाने कितनी बार झूठ बोलते हैं और हिंसा करते हैं। बहुत ही हैरानी होती है जब लोग गांधी जयंती पर समारोहों में उनके मार्ग पर चलने को कहते हैं..जबकि खुद कभी नहीं चलते। इतना बड़ा झूठ गांधी जयंती पर भी बोलकर हम साबित कर देते हैं कि हमसे बड़ा कोई झूठा नहीं। बाकी फिर.....

Wednesday, September 30, 2015

wrong way of life

गाय का मांस यदि कोई खाता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं..इस लाइन से मैं सहमत हूं..लेकिन इस लाइन से नहीं कि हम कानून को अपने हाथ में लेते हुए किसी को मौत के घाट उतार दें। ये दोनों लाइन सुर्खियों में हैं..कोई किसी के पक्ष में है तो कोई किसी के विरोध में.मैं न तो इसके पक्ष में हूं और न विरोध में।

गाय को करोड़ों देशवासी अपनी मां के समान मानते हैं..गाय ही क्या..कोई भी जानवर हो..उसे मौत के घाट उतारने का हमें अधिकार नहीं..और अधिकार भी है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। मेनका गांधी जी..पशु-पक्षियों की देश में सबसे बड़ी पक्षधर मानी जाती हैं..उन्होंने सर्कसों में जानवरों के इस्तेमाल पर पाबंदी से लेकर स्कूल-कालेज की लैब में मेढक तक काटने को लेकर अभियान चलाए हैं..लेकिन जब गाय काटने की बात आती है तो बहुत सारे लोगों का मौन..उनकी मजबूरी..उनके स्वार्थ की पोल खोल देता है। ऐसे तमाम राजनेता हैं जो खुद गाय की पूजा करते हैं..उनके घर में गौमाता पूजी जाती है और जब कोई घटना होती है तो उस पर मौन साध जाते हैं।
यदि किसी ने गौ मांस खाया तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए और यदि उसने नहीं खाया तो केवल एक अफवाह के चलते किसी की जान ले लेना वाकई शर्मनाक है। आजकल अफवाहों का जो हाल है उससे ज्यादा बुरा किसी का नहीं..जिस तरह दिन भर तरह-तरह की अफवाहें फेसबुक और whatsapp पर एक जगह से दूसरी जगह फैलने लगी हैं..उससे किसी का भी कितना भी नुकसान हो सकता है और हो रहा है...तस्वीरों को काट-पीट कर चिपका देना और फिर उसे भेजते रहना..तरह-तरह के उकसाने वाले स्टेटमेंटस कट पेस्ट कर सोशल मीडिया पर सर्कुलेट कर देना रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हो गया है और इसके जरिए भावनाएं भड़का कर अपने स्वार्थ को बखूबी अंजाम दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में ऐसी कई घटनाएं पिछले सालों में हो चुकी हैं जिसमें एक-दो नहीं कई लोगों की जानें गई हैं और पूरे इलाके का भाईचारा तहस-नहस कर दिया गया है। इस काम में न केवल राजनेता बल्कि बिल्डर भी लगे हुए हैं जो एक संप्रदाय को किसी इलाके से बेदखल करने के लिए ऐसे षडयंत्र रच रहे हैं। कोई अपने वोट के लिए इस तरह के खतरनाक साजिशों को अंजाम दे रहा है।
कोई कितना भी गलत करे..हमें ये अधिकार नहीं कि हम उस पर फैसला सुनाएं...साथ में ये भी है कि जो गलत काम कर रहे हैं..उन्हें सोच लेना चाहिए कि भविष्य में गलत करने के पहले एक बार जीवन के बारे में सोच लें..नहीं तो इस देश में कुछ भी होता आया है और आगे कुछ भी हो सकता है...बाकी फिर.....

मोह किससे होता है...

हम हर महीने कोई न कोई ड्रेस अपने लिए खरीदते हैं..परिवार के बाकी लोग भी खरीदते हैं। जो नई ड्रेस लाते हैं..उसे बार-बार पहनने का मन करता है..और पुरानी ड्रेस को हम हेय दृष्टि से देखने लगते हैं..मन ही मन कहते हैं कि अब तुमसे अच्छी और नई ड्रेस हमारी जिंदगी में आ गई है। ये बात अलग है कि उस ड्रेस को फेंकते नहीं। तब तक नहीं फेंकते..जब तक उस ड्रेस को घर में रखने की समस्या नहीं आती। हैंगर पर टंगी ड्रेस महीनों इंतजार करती रहती है लेकिन उसे बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता। ये बात अलग है कि जिस दिन वो ड्रेस आई थी..उस दिन उसका घर में जोरदार स्वागत हुआ था..नई नवेली दुल्हन की तरह..उलट-पलट कर देखने के साथ ही..जब पहली बार पहना तो उसकी वजह से ही हमारी शान थी लेकिन पुरानी होते ही वो कबाड़ का हिस्सा बन गई। ऐसी ही दर्जनों ड्रेस अलमारी में टंगी हैं लेकिन उन्हें निकाल कर फेंकने का मोह नहीं छूटता।

ड्रेस का तो एक उदाहरण है..जीवन में ऐसी तमाम वस्तुएं हैं जिनका घर में भंडार होता है..हम नया टीवी ले आते हैं..नया म्युजिक सिस्टम ले आते हैं..नई क्राकरी ले आते हैं..नए मोबाइल ले आते हैं..नए जूते-चप्पल ले आते हैं लेकिन जब तक वो सही सलामत हैं..उन्हें फेंकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लगता है कि पैसे लगाए थे..इसलिए इन्हें क्यों फेंको..शायद कभी काम आ जाएं..हालांकि उन्हें कभी काम नहीं आना है..उन्हें हम तब ही फेंकने की जहमत उठाते हैं..जब जगह की दिक्कत होने लगती हैं या फिर टूट-फूट हो जाती है। नहीं तो सैकड़ों वस्तुएं हमारे घर में ऐसी होती हैं जिन्हें हम सालों से ढो रहे हैं और वो जस के तस अलमारी में पड़ी हुई है। अगर गौर से हम इन सारी वस्तुओं पर नजर डालें..तो आधी से ज्यादा ऐसी वस्तुएं हैं जिनका हम बिलकुल उपयोग नहीं कर रहे और न ही आगे करना है..क्योंकि आज जिनका उपयोग कर रहे हैं..उनकी जगह नई चीज आनी ही है। अगर हम कोई सामान बाहर निकालते भी हैं तो तब निकालते हैं जब एक जैसी कई वस्तुएं आपके पास हो जाती हैं और तब आप बड़ी मुश्किल में सबसे पुरानी वस्तु को किनारे लगाने की हिम्मत जुटा लेते हैं। ये सोच कर कि अब एक साथ इतनी सामग्री घर में कहां समाएगी।
यही है मोह..जो समय के साथ अपनी प्राथमिकता बदलता रहता है..जो हमारे लिए अनुपयोगी हो जाता है..उसे हम लंबे अरसे तक ठंडे बस्ते में डाले रहते हैं लेकिन उसे हम जीवन से इसलिए नहीं निकालते..कि कहीं काम आ गया तो.. जब बिलकुल निश्चिंत हो जाते हैं या फिर जब आपकी क्षमता से ज्यादा अनुपयोगी सामग्री इकट्ठी हो जाती है तो उसे त्याग देते हैं। जो पा लिया..उससे मोह कम हो जाता है..जो पाना है उससे ज्यादा मोह होता है..जो बरसों पहले पाया था..वो मोह किनारे लग जाता है..वो सामान्य श्रेणी में नहीं आता..जो हमसे जितना दूर है..उससे उतना ही ज्यादा मोह होता है। बाकी फिर......

Tuesday, September 29, 2015

दूसरों को बेवकूफ मत समझो

जब हम किसी से मिलते हैं..पहली दफा बात करते हैं..मुलाकात करते हैं..तो हम सामने वाले को इंप्रेस करना चाहते हैं..हम उसे जताना चाहते हैं कि हम दुनिया में सबसे बुद्धिमान, होशियार, समझदार, काबिल, जानकार, मेहनती, ईमानदार..संघर्षशील इंसान हैं..और हमारे अलावा दुनिया में कोई विकल्प नहीं। हम ये भूल जाते हैं कि हम जिसके सामने बैठे हैं..वो खुद के बारे में भी यही समझता है..और वो भी जीवन के बारे में बहुत कुछ जानता है..और हो सकता है कि आपके बारे में भी पहले से बहुत कुछ जानकारी रखता हो..या आप उससे मिलने जा रहे हो..तो वो आपके बारे में पहले से पता कर चुका हो।

एक मित्र बता रहे थे कि किसी बड़ी शख्सियत से उनकी मुलाकात हो रही थी..वो इसी मुगालते में थे कि मेरे बारे में कुछ नहीं जानता है..ये सही भी था लेकिन वो तब तक नहीं जानता था..जब तक कि उसे मित्र से लेना-देना नहीं था..जब मुलाकात तय हो हुई तो मिलने वाली शख्सियत ने उनके बारे में कुछ ही घंटों में सारी जानकारी खंगाल ली। मुलाकात हुई..मुलाकात अच्छी रही..और उसके बाद रिजल्ट भी अच्छा आया लेकिन रिजल्ट आने के बाद मित्र को पता चला कि वो उनके बारे में पहले ही जानकारी जुटा चुके थे..तब उन्हें एहसास हुआ कि हम किसी को अंधेरे में रखने की कोशिश करें..या बढ़-चढ़ कर खुद को पेश करें..उससे सामने वाला प्रभावित होने वाला नहीं..हां ये जरूर हो सकता है कि यदि हमने शेखचिल्ली के हसीन सपने दिखाए..या फिर बड़ी-बड़ी डीगें मारी तो सामने वाला समझ जाएगा कि आप फेंकू हो..और जब एक बार में इतनी फेंक रहे हो..तो पूरे जीवन में न जाने कितनी फेंकी होगी..और किस-किस को फेंकी होगी। जाहिर है कि इसका रिजल्ट उलटा होगा..सामने वाला शख्स आपसे किनारा कर लेगा और आपसे आगे बचने की कोशिश करेगा।
ऐसा हमारे जीवन में हर रोज होता है और सैकड़ों बार होता है..रोज हम नए-नए लोगों से मिलते हैं..कई से जीवन में एक दफा ही मिलते हैं और कई से लगभग हर रोज या अक्सर मिलते हैं। जिनसे हम एक बार मिलते हैं उन्हें या तो हम इंप्रेस नहीं कर पाते हैं या फिर उससे हम इंप्रेस नहीं होते हैं। जिन्हें हम समझ पाते हैं..जान पाते हैं..और उसकी बातों में..उसकी व्यवहार में या फिर उसके कामकाज में एक संतुलन पाते हैं तो हम उससे रिश्ता बना लेते हैं वो रिश्ता दोस्ती का हो सकता है..वो रिश्ता अच्छे इंसान को जानने के स्तर पर हो सकता है। जिन्हें अच्छा समझते हैं..हम उनसे जुड़ना चाहते हैं और जिन्हें अच्छा नहीं समझते..उनसे दूर रहना चाहते हैं। आप अपने को जितना कम बताते हैं..आप अपने को जितना विनम्र रखते हैं और आप अपने को जितना व्यवहारिक बनाते हैं..उससे आपकी लोकप्रियता बढ़ती है और आपसे लोगों के रिश्ते मजबूत होते हैं। हम किसी को बेवकूफ बनाते हैं तो हो सकता है कि सामने वाला बन भी जाए..लेकिन वो भी अपने जीवन में सबक लेता है और आगे उस दोहराव से बचने की कोशिश करता है और आपकी इमेज जो बिगड़ती है तो दूर तक जाती है।  जीवन दर्शन यही है कि जो हम सोचते हैं..उतना ही सामने वाला भी सोचता है इसलिए धरातल पर रहते हैं तो जमीन पकड़े रहते हैं..हवा में उड़ने की कोशिश करते हैं तो भले ही कुछ ऊंचाई तक उड़ जाए..लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं..और जब नीचे गिरते हैं तो कुछ नहीं बचता है...बाकी फिर......

Sunday, September 27, 2015

गूगल-गूगल कहना है....

वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है..ये कहावत वे सब जानते हैं जो वृंदावन गए हैं या फिर वृंदावन की महिमा जानते हैं। आज के जमाने में जिस रफ्तार से गूगल और फेसबुक के साथ ही डिजिटल मीडिया का जुनून छा रहा है उससे साफ है कि हम कितनी ही आलोचना कर लें..कितने ही नफा-नुकसान की बात कर लें..जो चाहे कर लें..लेकिन हम सबको इस धरती पर रहना है तो गूगल-गूगल कहना है। कोई भी क्षेत्र हो, चाहे पढ़ने वाले बच्चे हों..चाहे सरकारी दफ्तर हों..चाहे बिजनेस हो..चाहे धर्म-कर्म हो..चाहे ज्योतिष हो..चाहे आर्थिक-सामाजिक हो..कुछ भी हो..बिना मोबाइल, बिना इंटरनेट और उस पर भी बिना गूगल संभव नहीं।
गूगल कितना ही मुनाफा कमा रहा हो..गूगल भले ही हमारी सारी जानकारी इकट्ठी कर रहा हो..गूगल जो चाहे कर रहा हो..पर हमारी जरूरत बन गया है..हमारी मजबूरी बन गया है और हमारा नया रास्ता बन गया है जिसके बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं लगता। यहां तक कि मंदिर से लेकर पुजारी और साधु-संत भी डिजिटल हो चुके हैं।

एक मित्र हैं..मीडिया में हैं..बड़ा नाम है..एक बार बता रहे थे कि मैनेजमेंट की मीटिंग चल रही थी..किसी जानकारी के बारे में सवाल हुआ..किसी को नहीं मालूम था..हमारा हाथ मोबाइल पर था..गूगल में सर्च किया और उससे सारी जानकारी बता दी. इसमें कुछ ही सेकंड लगे।.बस क्या था..उस मीटिंग में सारे लोग मेरी तरफ देखने लगे। सबको लगा कि कितना जानकार शख्स है..उसमें मेरा कुछ नहीं था..सब गूगल का कमाल था।
किसी का प्रोफाइल देखना है..किसी इलाके के बारे में जानना है..किसी का इतिहास खंगालना है..किसी की अच्छाईयां देखना है..या फिर बुराईयां देखना है..बस कुछ ही सेकंड में सारी जानकारी हाजिर है। हो सकता है कि वो जानकारी गलत भी हो..लेकिन सब कुछ गूगल के भरोसे ही चल रहा है..उसी से हम किसी के बारे में अच्छी या बुरी धारणा बना रहे हैं। उसी के इशारे पर नाच रहे हैं। यही नहीं..ये सब इतनी तेजी से बढ़ता जा रहा है कि गूगल के बिना हम अपनी जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते। गूगल की महिमा का जितना बखान किया जाए..कम है। जाहिर है कि जब कोई बड़ा बन जाता है..जब कोई ताकतवर बन जाता है..जब कोई जरूरत या मजबूरी बन जाता है तो अच्छा हो या बुरा..हमें अपनाना पड़ता है।
इसमें कोई शक नहीं कि गूगल ने जो आइडिया पैदा किया..उसे धरातल पर उतारा और फिर उसमें समय के साथ लगातार बदलाव किए..तो उसके पीछे गूगल की टीम की कड़ी मेहनत है और उसका रिटर्न वो लेगा। कोई भी बिजनेस मैन हो..वो भी दो रुपए की चीज दस और बीस रुपए में बेच रहा है। गूगल जिसे सेवा दे रहा है..उससे कुछ नहीं ले रहा है..वो मुफ्त में दे रहा है। वसूल उनसे कर रहा है जो हमसे कमाई कर रहे हैं। हम जितना गूगल देखेंगे..गूगल को उतनी ही कमाई होनी है। यही हाल फेसबुक का भी है जिसके बिना करोड़ों लोगों को चैन नहीं पड़ता। सुबह उसी से होती है और रात भी। मोबाइल पर दिन भर उंगलियां चलती रहती हैं और गूगल, फेसबुक, whatsapp को देखती रहती हैं। कोई भी चीज हो..उसके दो पहलू होते हैं..अच्छे या बुरे..ये हमारे ऊपर है कि हम उसकी अच्छाईयां ले लें..और बुराईयों को छोड़ दें। बाकी फिर......

Saturday, September 26, 2015

कामयाबी क्यों नहीं मिलेगी?

नोएडा के सेक्टर-122 में रहता है नौवीं क्लास में पढ़ने वाला हरेंद्र, स्कूल जाने के लिए 5 किमी चलता है। सुबह छह बजे स्कूल निकल जाता है। उसके बाद कंप्यूटर क्लास जाता है। पिता को पोलियो है..2013 में नौकरी छूट गई..बाद में फिर नौकरी मिल गई, मां बीमार रहती है। बड़ा भाई 17 साल का विवेक है और छोटा भाई सात साल का हिमांशु.

हरेंद्र को स्कूल से एक प्रोजेक्ट मिला..जिसे बनाने के लिए पैसे चाहिए थे..घर में इतने पैसे नहीं थे..माता-पिता बाहर गए थे, सोच में था क्या करें..तभी उसकी नजर घर में रखी वजन तौलने वाली मशीन पर पड़ी..मन में हौसला था..हौसले से दिमाग में आइडिया आया और उस वजन तौलने वाली मशीन को स्कूल बैग में लेकर नोएडा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन पर पहुंच गया। स्ट्रीट लाइट के नीचे मशीन रखी...खाली समय में पढ़ाई करता रहा और पहले ही रोज उसने दो रुपए के हिसाब से 60 रुपए कमाए। चार दिनों में उसे मिले दो सौ रुपए..इन रुपयों से उसने अपना प्रोजेक्ट पूरा किया.. इसी आइडिया और मेहनत से उसे नई राह मिल गई। अब वह हर रोज शाम सात बजे से रात नौ बजे तक दो घंटे मशीन लेकर बैठता है। साथ में पढ़ाई भी करता जाता है।क्लास में वो टाप तीन बच्चों में है।
सबसे पहले हरेंद्र की तस्वीर किसी ने फेसबुक पर पोस्ट की..और जब उसकी सारी कहानी सामने आई तो वाकई दिल को छू गई। ये बच्चा हम सबको को एक नई सीख दे गया। हम अक्सर कामयाब लोगों को देखते हैं..उनके लिए वाह-वाह करते हैं..उनसे सीख लेने की कोशिश करते हैं लेकिन उसके पीछे की हकीकत या मेहनत नहीं देखते। फेसबुक पर एक और इंटरव्यू देख रहा था..भाबी जी घर पर हैं सीरियल के हप्पू सिंह का..वो यूपी के हमीरपुर के रहने वाले हैं...उनका किरदार दिलचस्प है और सभी उनके अभिनय के कायल हैं..कुछ ऐसी ही कहानी उनसे भी जुड़ी है। मन में अभिनय का कीड़ा काट रहा था..लखनऊ में पढ़ाई करने के बाद मुंबई का रुख कर लिया। करीब दस साल की मेहनत के बाद अब वो प्रसिद्धि पा रहे हैं। काम के लिए कई प्रोडक्शन हाउस के धक्के खाए..हौसला और मेहनत आखिरकार रंग लाई।
ऐसे ही किस्से और भी हैं..हम चमत्कार को नमस्कार करते हैं..लेकिन उस चमत्कार के पीछे कितना लंबा संघर्ष होता है...परेशानी होती है..मेहनत होती है..जज्बा होता है..इसे हम नहीं देखते...किसी के भरोसे हम आगे नहीं बढ़ सकते..अगर जीवन में हमने मदद की दरकार की तो समझ लो हम कमजोर हो गए..हमारा खुद से भरोसा टूट गया..जो करना है..हमें ही करना है...सीख कर करना है..मेहनत से करना है..संघर्ष के साथ करना है..कामयाबी मिलेगी या नहीं..ये भी हमें ही तय करना है...बाकी फिर.....

Tuesday, September 22, 2015

भारत में भी कई होंगे सुंदर पिचाई और सत्या नडेला

प्रधानमंत्री जब-जब अमेरिका के दौरे पर जाते हैं..वहां रहने वाले भारतीयों की चर्चा शुरू हो जाती है। इस बार बात हो रही है, सिलिकान वैली की..जो तकनीकी कंपनियों का हब है। जहां आधे से ज्यादा भारतीय काम कर रहे हैं और उनमें गूगल के सुंदर पिचाई, माइक्रोसाफ्ट के सत्या नडेला से लेकर सुंदर नारायण, अपूर्व खोसला और तमाम दिग्गज लोग हैं। ऐसे लोग जिन्होंने पूरी दुनिया में अपनी धाक जमाई है। भारत के प्रधानमंत्री भी उनसे मिलने की इच्छा रखते हैं। देश चाहता है कि वो भारत की तरफ देखें..यहां निवेश करें..और भारत के विकास में भागीदार बनें।

ये तो हम सोच रहे हैं लेकिन हमने ये कभी नहीं सोचा कि आखिर भारत के खड़गपुर, रुड़की, दिल्ली, कानपुर, मुंबई की आईआईटी और अहमदाबाद आईआईएम से निकले ये छात्र विदेश क्यों चले गए?..क्या हमने ये कभी सोचा कि आखिर उन्होंने देश की धरती पर ही रहना क्यों पसंद नहीं किया..सबसे पहले बात आती है कि भारत में क्या उन्हें पैसा मिलता...क्या भारत में उन्हें इतना सम्मान मिलता..क्या भारत में उनकी सोच इतनी तेजी से आगे बढ़ती..क्या भारत में उनके काम की राह आसान होती..अगर नहीं..तो हम किसी को भी आमंत्रित कर ले..आमंत्रित करने के बाद वो यहां आ भी जाए..लेकिन जब माहौल नहीं मिलेगा..सम्मान नहीं होगा..तरक्की नहीं होगा..तो किसी का भी मोह भंग हो जाएगा।
हमारे देश के ही लोग उन्हें कोसते हैं कि वो विदेशों के लिए काम कर रहे हैं..वो हमारे नहीं हैं..वो पैसों के लिए काम कर रहे हैं लेकिन उनसे तो भले हैं जिन्होंने आईआईटी और आईआईएम तो छोड़..ग्रेज्युएशन भी ठीक से नहीं किया और आज देश में करोड़ों-अरबों के मालिक हैं..ईमानदारी से नहीं..बल्कि बेईमानी से...जब राजस्थान के आईएएस के यहां रिश्वत के चार करोड़ नगद मिलते हैं...जब एक पुलिस वाला लखनऊ में 20 रुपए की रिश्वत के लिए एक गरीब बुजुर्ग का टाइपराइटर तोड़ देता है..जब मध्यप्रदेश में आईएएस दंपत्ति के यहां दो सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति मिलती है..जब नोएडा में एक इंजीनियर के यहां सैकड़ों करोड़ों की अवैध संपत्ति जब्त होती है..तो हमें ताज्जुब नहीं होता क्योंकि हमें पता है कि पूरे देश में चाहे नेता हों या अफसर हों..या बिजनेस मैन हो..ज्यादातर अवैध कमाई से फल-फूल रहे हैं..और इतना फल-फूल रहे हैं कि उनका पेट दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। ऐसे में अगर गूगल के सुंदर पिचाई और माइक्रोसाफ्ट के सत्या नडेला विदेश जाकर पैसों के लिए काम करते हैं तो क्या गलत करते हैं।
हमने ये तो सोचा कि उन्होंने विदेशों की शरण ली..लेकिन ये नहीं सोचा कि क्या भारत में सिलिकान वैली नहीं बन सकती थी..बन सकती थी..यदि यहां वो माहौल होता..अनुशासन होता..कायदे-कानूनों का सही से पालन होता और ऐसे लोगों का सम्मान होता। हम प्रतिभा का सम्मान भी यहां तब करते हैं जब वो प्रसिद्धि पा लेता है..नहीं तो ऐसे न जाने कितने सुंदर पिचाई और सत्या नडेला अब भी भारत में होंगे...बाकी फिर.....

Monday, September 21, 2015

ये भेद तो हम खुद बनाते हैं...

हमारे पैतृक गांव में रिश्ते में एक अंकल हैं..वो अपने पिता के इकलौते बेटे हैं..उनके पिता भी इकलौते बेटे थे। उनके परिवार में ऐसा माना जाता रहा है कि एक ही बेटा होता है और वो ही वंश आगे बढ़ाता चलाता जाता था। जब अंकल की शादी हुई तो मैं बहुत छोटा था..शादी में मैं भी गया था। पिता ने धूमधाम से शादी की और शादी के बाद उन्हें एक ही चिंता सताने लगी कि एक बेटा हो जाए..ताकि वंश आगे बढ़ सके। पहला बच्चा आने की खुशी शुरू हुई..लेकिन जब बेटी हुई तो उनके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं...अगले साल ही फिर बच्चा आने की सुगबुगाहट हुई..इस बार फिर आशा बंधी कि अब बेटा होगा..लेकिन दूसरी भी बेटी हुई..तीसरी बार भी फिर बेटी हुई..तीन-तीन बेटियों को घर में देखकर उनका दिल कमजोर हो गया..और इसी चिंता में वो चल बसे..

अंकल भी नहीं माने और उनकी मां भी..करते-करते छह बेटियां हो गईं। आप समझ सकते हैं कि छह बेटियां हुईं हो उनके लालन-पालन का बोझ परिवार पर बढ़ने लगा। घर की खेती थी जिससे अनाज का खर्च चल जाता है..गांव में पैतृक घर था..इसलिए घर किराया नहीं लगता था..लेकिन बच्चियों की पढ़ाई.और शादी की चिंता में अंकल की हालत खराब हो गई। कचहरी में काम करने तहसील जाते थे..सौ-दौ रुपए रोज कमा लेते थे और फिर खेती-बाड़ी का सहारा था..लेकिन छह बच्चियों की पढ़ाई और लालन-पालन के लिए ये काफी नहीं था। हमारे पिता जी को ऐसे सारे लोगों की चिंता होती थी और अब भी होती है जो जीवन में इस तरह का संकट झेल रहे हैं। पिता जी अक्सर उनके बारे में बातें करते रहते हैं। अंकल जब भी घर आते..तो हमारे पिता जी उनसे बच्चियों का हाल-चाल पूछते और थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद कर देते।
अंकल का पूरा जीवन बेटियों को पढ़ाने और शादी की जद्दोजहद में चला गया..और आज भी चल रहा है। उन्हें मैंने कभी खुश नहीं देखा..सालों में जब भी किसी मौके पर टकराते हैं तो उन्हें देखकर हमारे चेहरे पर भी चिंता की लकीरें खिंच जाती हैं।
इस घटना का जिक्र इसलिए किया कि बेटी हो या बेटा..कोई फर्क नहीं पड़ता..कहते हैं कि पढ़े-लिखे लोग ये भेद नहीं करते..तो बता दें कि अंकल ने भी एमए किया था और कुछ वक्त सरकारी नौकरी भी की..लेकिन जब बूढ़े पिता और मां का बोझ..खेती-बाड़ी और एक-एक कर बच्चियों का पैदा होना..ये सब ने उनकी खुद की जिंदगी खत्म कर दी। एक तरफ वंश की चिंता में दुबले होते गए..तो दूसरी तरफ बच्चियों के बोझ तले..
आप कहेंगे कि बच्चियां बोझ नहीं होती..बच्चियां हो या बच्चे..जब इतने होंगे तो बोझ होंगे ही...जब हम बेटों को वंश चलाने वाला मानेंगे तो बेटियां बोझ होंगी हीं...किताबी पढ़े-लिखे होने का ये मतलब नहीं है कि आप शिक्षित हैं..शिक्षित होने का मतलब है कि आप और हम बेटे-बेटियों में भेद न करें..न बेटे भले होते हैं न बेटियां..न बेटे बुरे होते हैं..न बेटियां..ये भेद हम खुद बनाते हैं..या फिर वो बेटे-बेटियां बनाते हैं...बाकी फिर.....

कौन सही है, कौन गलत?

एक पुराना किस्सा है, मेरे एक मित्र हैं, अपने दफ्तर में अपने व्यवहार और कामकाज को लेकर खासे लोकप्रिय हैं। कभी किसी से झगड़ा नहीं होता..सारे लोग उनकी तारीफ करते हैं। सबके दुख-सुख..घर आना-जाना होता है। एक दिन बड़े दुखी थे, बोले एक अधीनस्थ सहयोगी उन्हें सपोर्ट नहीं कर रहा था, काफी समझाया-बुझाया..नहीं समझ में आ रहा था, किसी बात को लेकर एक दिन तकरार हो गई। तकरार बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन उस अधीनस्थ सहयोगी ने मेरे मित्र की शिकायत उच्च स्तर तक कर दी। मामला बड़ा हो गया..ऐसे-ऐसे गंभीर आरोप लगा दिए गए कि वे व्यथित हो गए..

इस शिकायत पर उनसे जवाब मांगा गया..शिकायत का जवाब लिखते गए..लिखते गए..लिखे जा रहे थे..जवाब खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था..सात पन्ने हो गए..इसके बाद भी जवाब जारी था..जिन साथी के सामने वे लिख रहे थे, उन्हें पढ़वाते भी जा रहे थे..जवाब देखकर वो मुस्कराए..बोले..इतना लिख दिया और कितना लिखोगे..ये जवाब ही बहुत लंबा हो गया...इसे और मत खींचो..पढ़ने के लिए भी तो सामने वाले को समय चाहिए..इस पर मित्र ने सात पन्नों में ही अपना जवाब खत्म कर दिया। उसकी आखिरी लाइन बड़ी खतरनाक थी..कि यदि इसमें लिखी एक बात भी गलत हो..तो मुझ पर सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए..और यदि सामने वाला गलत हो..तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए..ताकि कोई गलत शिकायत का शिकार न हो और उसकी छवि धूमिल न हो।
आपको जानकर हैरानी होगी कि इस शिकायत और उस जवाब का रिजल्ट क्या निकला..दोनों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.. न तो मेरे मित्र पर कार्रवाई हुई और न ही उन पर..जिन्होंने शिकायत की थी। जाहिर है कि शिकायतकर्ता मन ही मन खुश था कि उसने झूठी शिकायत करके मेरे मित्र की छवि धूमिल कर दी..और उसके बाद भी उस शख्स का हौसला बुलंद रहा। इससे मेरे मित्र काफी खिन्न दिखे।
ये घटना आज इसलिए याद आ गई..कि प्याज खरीदने और उसे बेचने के मामले में जब दिल्ली सरकार पर आरोप लगता है तो दिल्ली सरकार कहती है कि केंद्र ने महंगे में दिए..हमने सस्ते में बेचा..केंद्र सरकार कहती है कि हमने सस्ते में दिए..दिल्ली सरकार ने महंगा बेचा..जाहिर है कि एक कोई झूठ बोल रहा है...या तो दिल्ली सरकार या फिर केंद्र सरकार..इस खबर को आज तक चैनल ने दिखाया..तो उस पर दिल्ली सरकार ने उसके खिलाफ अखबारों में विज्ञापन छपवा दिया। अब इंतजार इसी बात का है कि कौन सही है..कौन गलत..ऐसा न हो कि मेरे मित्र जैसी घटना ये बनकर रह जाए...बाकी फिर.....

Saturday, September 19, 2015

इसे कहते हैं सोशल मीडिया

लखनऊ में एक बुजुर्ग कृष्ण कुमार..35 साल से पुराने से टाइपराइटर के जरिए सड़क किनारे बैठकर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे, पुलिस वाले उससे 20 रुपए रोज वहां बैठने के वसूलते थे..हो सकता है आपको ताज्जुब हो कि 20 रुपए की रिश्वत भी कोई लेता है..तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है..दो रुपए से लेकर 5 रुपए तक हर रोज की वसूली रिश्वत के रूप में होती है और जब सैकड़ों लोगों से हर रोज होती है तो ये छोटी सी रकम महीने में लाखों में पहुंचती है।

 उस रोज शायद उसका धंधा ही नहीं हुआ..धंधा भी कितना होता होगा..मुश्किल से हर रोज सौ रुपए..उसमें से 20 रुपए पुलिसवाले के..उस जगह बैठने के एवज में..जो शख्स हर रोज कमाता हो..और शाम को जाकर उसे दिन भर की कमाई से रोटी नसीब होती हो..वो बिना धंधे के 20 रुपए कैसे दे सकता था..बस क्या था..उसे बुजुर्ग की कमाई से क्या मतलब..उसे अपनी कमाई से मतलब था..वीवीआईपी सिक्योरिटी का हवाला दिया..और टाइपराइटर में लात मारनी शुरू कीं..दनादन लातों से उसका टाइपराइटर तहस-नहस कर दिया..ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर छा गईं। सरकार को लगा कि थू-थू हो रही है..एसएसपी ने जाकर उसे नया टाइपराइटर दिया और तस्वीर खिंचाई।
वाकई..ये है सोशल मीडिया का सदुपयोग..जिसने भी सोशल मीडिया पर इसे पोस्ट किया..जिन्होंने भी इसे शेयर किया..वो जानते हैं कि सोशल मीडिया का सही उपयोग क्या है..जब हम किसी की मदद करते हैं..किसी को दिशा देते हैं तो हम दूसरों को भी सीख देते हैं। हम अपने लिए तो हमेशा करते हैं. और खुद खुश होते हैं .लेकिन जब दूसरों के लिए करते हैं..और उनके चेहरे पर मुस्कराहट देखते हैं..तो खुशी दुगनी होती है।
हमारे-आपके लिए भले ही सौ रुपए कोई बड़ी बात न हो..लेकिन जिसकी हर रोज की कमाई सौ रुपए की हो..उसके लिए बहुत बड़ी बात होती है..उस सौ रुपए में ही दिन भर का खर्च चलाना..उसकी मजबूरी है...और अगर किसी दिन वो सौ रुपए भी न मिले..तो उसके जीवन में कितना कष्ट होता होगा..हम आप नहीं समझ सकते।
 जिसकी जितनी कमाई होती है..उसी हिसाब से हम अपना आकलन करते हैं..यदि हमें एक हजार रुपए रोज मिलते हैं..तो एक हजार का महत्व हमारे लिए उतना ही होता है जितना सौ रुपए हर रोज कमाने वाले को सौ रुपए का होता है। कोई बुजुर्ग फुटपाथ पर पुराने से टाइपराइटर लेकर दिन भर क्यों बैठता होगा..हम सोच सकते हैं..कि आखिर उसके लिए उस टाइपराइटर का क्या महत्व था..जिसके जरिए वो अपनी आजीविका जैसे-तैसे चलाता होगा..उस पर भी पुलिस वालों की नजर...ये तो एक बानगी थी..जिस पर किसी की नजर चली गई..उस भले आदमी ने सोशल मीडिया पर डाल दिया..नहीं तो ऐसी घटनाएं हर रोज होती हैं..हर जगह होती हैं...लेकिन किसी को परवाह नहीं। जब हम परवाह करते हैं..तो ऐसा असर होता है...बाकी फिर...

लूट सके तो लूट

बकरी का दूध एक हजार से दो हजार रुपए लीटर, ब्लड टेस्ट सौ रुपए से बढ़कर छह सौ रुपए, पपीते के छिलके, गिलोय, नारियल पानी बाजार से या तो गायब हो गए, या फिर उनकी कीमत इतनी बढ़ गई है कि आम आदमी बेहाल हो जाए, अस्पतालों की ये हालत हो गई कि भर्ती कराने के लिए लोगों को सिफारिश का सहारा लेना पड़ रहा, उसके बाद मुंह मांगी कीमत तो देनी ही है, हाथ-पैर भी जोड़ना है..आखिर जिंदगी का सवाल है। जो पीड़ित हैं, वो लुट रहे हैं, तन से भी..मन से भी धन से भी, इसके बाद भी उपाय नहीं सूझ रहा कि क्या करें क्या न करें।

मेडिकल स्टोर पर लोग पहले से ही डर के मारे दवा खरीदने पहुंच रहे हैं..एक भला मेडिकल स्टोर वाला समझाने लगा कि यदि दवा खाकर प्लेटलेटस बढ़ा लोगे तो घटाने के लिए भर्ती होना पड़ेगा। जिसको जो राय दे रहा है..उसी के पीछे भाग रहा है..कोई कह रहा है कि रामदेव की गोलियां खा लो..बचे रहोगे..लोग रामदेव के स्टोर पर चक्कर काट रहे हैं..रामदेव के किराना स्टोर पर किराने का सामान है..जहां वैद्य बैठते हैं वहां दवा मिलती है..लोग उनका पता तलाश रहे हैं...ऐसे में दवाओं का ब्लैक हो रहा है..और जो बचाव सामग्री है उसका भी।
ये तो हुई पीड़ितों की बात, जो इस मामले में दूसरी साइड हैं..उनकी निकल पड़ी है। कमाई का मौसम बहार लेकर आया है..डेंगू है कि मानता नहीं..और जितना लंबा खिचेगा..उतना फायदा है। वो ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि डेंगू कुछ महीने और चले..जितना कमा सकते हो..कमा लो..पता नहीं फिर डेंगू कब आएगा और कितना आएगा। डाक्टरों की कमाई तो हो रही है..साइड बिजनेस भी खूब चल रहे हैं। आखिर वो भी क्या करें..पापी पेट को पालना है तो कमाई करनी ही है..वो नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा। उसके हिस्से का दूसरा ले जाएगा।
जो ज्यादा कमाना चाहते हैं वो थोड़ा और डरा दे रहे हैं कि डेंगू का मामला है..सोचो मत..ये तो कम है..खैर मनाओ..इतने कम में काम हो रहा है..जिंदगी से तो बढ़ी कीमत नहीं...पैसा तो बाद में और कमा लोगे..मन ही मन कह रहे हैं..अभी हमें कमाने दो..
सरकार भी अपनी पीठ ठोक रही है..सब बढ़िया चल रहा है..सब भर्ती होंगे..कोई अतिरिक्त चार्ज नहीं लिया जाएगा, सब डाक्टर काम कर रहे हैं..सब पैरामेडिकल स्टाफ काम कर रहा है..वो तो मौसम का प्रकोप है इसलिए ज्यादा हो जाएगा..जैसे ही मौसम ठीक होगा..सब ठीक हो जाएगा..यानि हम मौसम के हवाले हैं..मौसम नहीं मानेगा तो कोई कुछ नहीं कर पाएगा..इनमें से कोई उन घरों में जाकर देखे जहां मौत पसरी हुई है..उनसे पूछकर देखे कि उन पर क्या बीत रही है..जब जो भुगतता है..वही जानता है..बाकी फिर... 

Thursday, September 17, 2015

कब किसको जाना है नहीं पता...

2005 की बात है, सुबह 4.30 बजे उठता था, उठते ही न्यूज शुरू हो जाती थी, छह बजे दफ्तर पहुंच जाता था और खबरों की दुनिया में पूरी तरह डूब जाता था, एक दिन सुबह सात बजे रिपोर्टरों और डेस्क के साथ फोन पर कान्फ्रेंस में था, दिन भर के कवरेज और खबरों की प्लानिंग हो रही थी, तभी घर से बड़े भाई का फोन आता है, मैंने सोचा कोई काम होगा, फोन काट दिया, सोचा कान्फ्रेंस के बाद बात कर लूंगा, एक-दो मिनट के बाद फिर फोन आया, एक फोन एक हाथ से पकड़े थे, दूसरे हाथ से मोबाइल उठाया, उधर से केवल रोने की आवाज सुनाई दी, फोन फिर कट गया।

ये वो क्षण था.जब मैंने महसूस किया कि एक क्षण में किसी भी आदमी का नशा कैसे हिरन होता है..चाहे वो नशा किसी भी चीज का हो..खबरों का ही क्यों न हो, साथ में बैठे साथी से मैंने कहा कि मैं कान्फ्रेंस से डिसकनेक्ट हो रहा हूं..और न्यूज रूम से बाहर जाकर मैंने छोटे भाई को फोन लगाया, उसने बताया कि मां नहीं रही, मैं समझ तो चुका था कि कुछ न कुछ गंभीर है लेकिन ये अंदाजा नहीं था, मां छोड़कर चली गई। वो भी इस तरह कि जैसे अचानक उनके जाने का मन हुआ हो, ब्लड प्रेशर था, कई सालों से..दवा खाती थीं, ठीक हो जाता था, एक हफ्ते पहले बीमार हुईं, बुखार आया, शहर के अच्छे डाक्टर घर आकर इलाज कर रहे थे, बुखार ठीक हो गया था, कमजोरी थी, तीन दिन पहले मेरी बात हुई थी, बोलीं..अब ठीक है, रात को उन्होंने मेरी बहन से बात की..एक-दूसरे के हाल-चाल लिए..थोड़ा सा भोजन भी किया..सुबह छह बजे बड़े भाई उनके पास ये देखने गए कि मां उठी या नहीं, कैसे हाल-चाल हैं..देखा कि वो निढाल थीं. डाक्टर को बुलाया, उनकी समझ में नहीं आया, बोले रात में तो बिलकुल ठीक थीं, जिस तरह वो गईं, उनके हिसाब से ब्लड प्रेशर हाई से लो हुआ, और संभव है कि इस वजह से वो शांत हो गईं।
इसके बाद एक और घटना से रुबरू हुआ, नामी पत्रकार थे, हंसमुख, बिंदास, स्मार्ट, मनमौजी, जब भी मिलते, हंसी-मजाक शुरू कर देते, कोई भी हो, चाहे छोटा या बड़ा, जिंदादिल, उस रोज शाम को आफिस की एक समारोह के लिए निकल रहे थे, जाने के पहले उनकी शानदार ड्रेस पर चर्चा हुई, अगली सुबह पता चला कि समारोह से देर रात लौटते वक्त एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल हो गए हैं, कई दिन तक जिंदगी से लड़ते रहे, आखिरकार हार गए।
तीसरी घटना..एक और साथी , दफ्तर से बाइक से निकले, घर नहीं पहुंच पाए, हादसे से कोमा में चले गए, फिर दम तोड़ दिया।
ऐसी कई घटनाएं और हैं, जो जिंदगी की हकीकत का एहसास कराती हैं। हम आए हैं तो जाना भी है.... कब, किसी को नहीं पता, कैसे जाना है, किसी को नहीं पता, मौत को हम तय नहीं कर सकते..बस ईश्वर ने ये तय किया है कि जब तक हो, जुटे रहो,कोशिश करो कि अच्छा सोचो, अच्छा देखो अच्छा सुनो, अच्छा करो....बाकी फिर....

Wednesday, September 16, 2015

पहले भगवान को कुछ दीजिए...

ईश्वर से हम यूं हर रोज कुछ न कुछ मांगते हैं...कभी सुख..कभी शांति..कभी समृद्धि..कभी धन..कभी सेहत..कभी बच्चे का कैरियर..कभी नौकरी में तरक्की..सबकी अपनी-अपनी जरूरतें हैं..इच्छाएं हैं..इसलिए ये क्रम कभी जीवन भर रुकता नहीं..चाहे राजा हो या रंक..सब मांगते हैं..टाटा-बिड़ला..अंबानी सब मांगते हैं। चाहे कोई कितनी ही ऊंचाई पर हो..वो और मांगते हैं। हमेशा हम मानते हैं कि हमारे पास कम है..हमें और ज्यादा चाहिए। जैसे पेड़ एक ऊंचाई तक जाता है..जब तक उसकी क्षमता होती है वो ऊंचा होता जाता है और जब ऊंचाई रुक जाती है तो वो शाखाओं में फैलने लगता है..और चारों और फैलता जाता है..ऐसा ही हमारा जीवन है..हम लगातार तरक्की चाहते हैं..जब तरक्की रुक जाती है तो हम चिंतित होने लगते हैं..कुछ मन ही मन सोचते हैं...कुछ गुस्सा और चिड़चिड़ाहट में उजागर करने लगते हैं और ईश्वर से कहते हैं कि वो हमारी क्यों नहीं सुन रहे।

ईश्वर हमारी क्यों नहीं सुनते..वो इसलिए नहीं सुनते..क्योंकि कमी हममें ही होती है। हम कभी अपने मन में नहीं झांकते..सिर्फ ईश्वर के पास फरियाद लेकर पहुंच जाते हैं कि हमारा जीवन सुधार दें..आपको हमें लगता है कि ईश्वर केवल इसीलिए बैठे हैं कि वो आपके आवेदन लेते जाएं..और उस पर अमल करते जाएं। ऐसे में ईश्वर को हम अपने से नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं..मानो वो हमारी अपील पर अमल करने के लिए ही बैठे हैं। दरअसल कितनी ही पूजा करें हम..कितनी ही मन्नतें मानें हम..पूरी जब ही होती हैं जब हम उसके लिए कमर कसते हैं..जब हम कुछ आगे बढ़ते हैं..कुछ सोच पैदा करते हैं..कुछ विचार पैदा करते हैं..कुछ मेहनत करते हैं..और कुछ संघर्ष करते हैं..तो ईश्वर जरूर उस आवेदन पर विचार करते हैं। कोई बच्चा चाहे..साल भर पढ़ाई न करे..और हर रोज पूजा-पाठ कर अव्वल आने की मनोकामना करे तो आप जानते हैं कि रिजल्ट में उसका क्या हश्र होगा। हम चाहें कि मन ही मन कुछ भी सोचे..और ईश्वर के पास जाकर उसे पूरा करने की मन्नत मांगें तो क्या वो पूरी हो जाएगी।
हम चाहें कि एक दिन और एक रात में चमत्कार हो जाए तो ये मुमकिन नहीं...एक दिन में न तो पूजा पूरी होती है..न ही सोच पैदा होती है..न ही विचार बनते हैं..न ही एक दिन में मेहनत और संघर्ष पूरा हो जाता है..ये प्रक्रिया जीवन भर चलती है..जब ये प्रक्रिया लगातार चलती है तो हमारी मनोकामनाएं भी पूरी होने लगती हैं..और ये मनोकामनाएं जीवन भर पूरी होंगी..जब हम लगातार चलते जाएंगे..मेहनत करते जाएंगे..जब हम थक जाएंगे..रुक जाएंगे..या मनोकामनाएं भी रुक जाएंगी। गिव एंड टेक..न प्यार एक तरफा होता है न ही पूजा..जब आप भगवान को कुछ देते हैं वो हमें उससे ज्यादा रिटर्न करते हैं। जैसे आप बैंक में अपनी बचत जमा करते हैं तो उस पर ब्याज मिलता है..उसी तरफ भगवान को हम जितना देंगे..वो हमें मय ब्याज के रिटर्न करेंगे लेकिन यहां बात पैसे की नहीं हो रही..कि आप सौ रुपए चढ़ाएं तो वो आपको एक सौ दस वापस करेंगे। यहां बात हो रही हमारे काम की..मेहनत की..सोच की..व्यवहार की..इसलिए भगवान से तभी मांगिए..जब आप उन्हें कुछ देने की स्थिति में हों..पैसा छोड़कर...बाकी फिर....

Tuesday, September 15, 2015

एक मच्छर सबको हिजड़ा बना देता है...

मौत घूम रही है..चारों तरफ..मेरी बेटी के स्कूल में भाई-बहन पढ़ते हैं..राखी के पहले एक भाई को डेंगू ने लील लिया। बहन अकेली रह गई। दिल्ली में एक बच्चे को डेंगू ने छीना और मां-बाप ने खुदकुशी कर ली। हर रोज अखबारों के पन्ने भरे पड़े हैं..दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा..कोई जगह ऐसी नहीं बची है जहां डेंगू का डंक न डस रहा हो। प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री..स्वास्थ्य मंत्री तक लगता कुछ करने की हालत में नहीं। ये देश है वीर जवानों का..जो करना है खुद करना है..न सरकार को करना है..न नेता को करना है। राजधानी का कौन सा स्कूल और सरकारी अस्पताल है जहां..स्वास्थ्य के सारे मापदंडों का पालन हो रहा हो। सबको पता है..आप और हमें पता है तो सरकार को क्यों पता नहीं होता।



बाजार से डेंगू से बचाव की सारी सामग्री गायब है। नारियल पानी बेचने वाला खुश है..पपीता बेचने वाला खुश है..उसकी बिक्री बढ़ गई है..मेडिकल स्टोर वाले भी खुश है..डाक्टर भी खुश हैं..ये लोग तो फिर भी ठीक है..खून तक बिक रहा है..तो फिर नारियल पानी वाले का क्या दोष..धंधे का मौसम है मतलब उनका मौसम है। जितना बेच पाओ..बेच लो..इतना बेच लो कि सारे साल की कमाई निकल आए..नेता सोकर उठते हैं और सोने के पहले बयान देते हैं..उन्हें भी एक मुद्दा है..वो भी बयान देने में कोई कंजूसी नहीं बरत रहे..डेंगू से बचना है..सरकार ध्यान नहीं दे रही है..अस्पतालों में इंतजाम नहीं है। जिनकी जवाबदेही है..उनके अपने बयान है..लगातार निरीक्षण किया जा रहा है..दवाईयां मंगाई जा रही है। अस्पताल में बिस्तरों के इंतजाम किए जा रहे हैं..सबको भर्ती किया जा रहा है..लेकिन मौतों को कोई रोक नहीं पा रहा।
क्योंकि एक मच्छर है जो सबको हिजड़ा बना देता है। पूरे देश को बना देता है। कितने ही बड़े वैज्ञानिक हों..डाक्टर हों..सरकार को हों..नेता हों..सब उसके आगे हारे हैं..किसी की ताकत नहीं। एम्स के डाक्टर बता रहे हैं कि इस बार कुछ अलग टाइप के डेंगू की आशंका है। आयुर्वेद वाले अपना प्रचार करने में जुटे हैं..डाक्टर कहते हैं कि हां..इन सब चीजों से आराम तो मिलता है पर कोई पक्की रिसर्च नहीं है। परखा हुआ नहीं है।
ये हमारी तरक्की की जीती जागती मिसाल है जब एक मच्छर मौत पर मौत का तांडव खेल रहा है..वो अपनी जनसंख्या बढ़ा रहा है..हम आदमियों की जनसंख्या भले ही रोक लें..लेकिन उनकी नहीं रोक सकते।

दरअसल जिस पर गुजरती है वही दर्द को जानता है..बाकी को क्या मतलब है..जब हम पर गुजरेगी..तब हम भुगत लेंगे। हर रोज सैकड़ों मरते हैं..एक्सीडेंट से मरते हैं..बीमारी से मरते हैं..अपनी मौत मरते हैं..मरने दो..हां कोई सेलिब्रिटी मरे.तो उस पर ध्यान दें..बाकी जान की क्या बिसात है..वो तो मरने के लिए ही है...करोड़ों की जनसंख्या में हजारों मर भी गए तो क्या फर्क पड़ रहा है..इसलिए जब किसी पर आपबीती हो..तभी बोलना है..दूसरे जाएं भाड़ में...मरे या जीएं..हमें कोई दिक्कत नहीं...मच्छर ये बात अच्छी तरह से जानता है कि हमारे आगे सब हिजड़े हैं। बाकी फिर.......

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Monday, September 14, 2015

चिट्ठी आई है....

एक पत्र हिंदी के नाम,
प्रिय हिंदी ये पत्र आपको लिख रहा हूं..और कर भी क्या सकता हूं.कोई प्रधानमंत्री को लिख रहा है.कोई सोशल मीडिया पर आपकी याद में आंसू बहा रहा है..कोई चिंता जता रहा है.इसलिए सोचा मैं आपको ही याद कर लेता हूं। आप अब एक दिवस के रूप में ही याद की जाने लगी है..चलो.कम से कम इतनी शर्म हममें है कि एक दिन तो आपके लिए रखा है। मैं तो आपको ही लिखता हूं..लिखता था और लिखता रहूंगा..लेकिन उसमें भी इतनी गिरावट आ गई कि बता नहीं सकता। अब लिखते वक्त आधे से ज्यादा शब्द तो अंग्रेजी ने हथिया लिए हैं..उर्दू भी हथिया चुकी है..और सही बताऊं तो पता ही नहीं चलता कि हम कितने शब्द हिंदी के लिख रहे हैं। हमने आपका विकल्प रोमन में लिखने का भी तलाश लिया है। इसके बावजूद जो हिंदी में लिख रहे हैं वो कम से कम आपको हर दिन लिखने के बहाने याद तो कर लेते हैं लेकिन आजकल के बच्चों का मोह भंग हो चुका है..या मोह भंग हमने कर दिया है। अब सौ में दस बच्चे भी हिंदी माध्यम में नहीं पढ़ते..भले ही कितने गरीब हों पर पहली प्राथमिकता अंग्रेजी की है..कहा जा सकता है कि आपकी हालत गरीबी से भी नीचे जा चुकी है।

उच्च वर्ग तो आपको बिलकुल पसंद नहीं करता..जो आपकी भाषा में बात करता है..उसका मजाक उड़ाया जाता है..उसे बिना पढ़ा-लिखा बताया जाता है और असभ्य करार दिया जाता है..गरीबी के बाद आपको असभ्यता का दर्जा भी मिलने लगा है। अंग्रेजी माध्यम के लोग उच्च कहलाते हैं और हम हिंदी वाले निम्न।
दिनोंदिन आपका जनाधार घटता जा रहा है और हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए..जब आपको एक दिन भी याद न किया जाए..क्योंकि नई पीढ़ी तो पहली कक्षा से अंग्रेजी में ही पढ़ रही है..लिख रही है और बोल रही है..कुछ पुरानी पीढ़ी के लोग हैं जो कम अंग्रेजी पढ़े हैं वो घर में हिंदी बोलते हैं तो बच्चे भी टूटी-फूटी सीख जाते हैं..एक दिन ऐसा जरूर आएगा..जब हमारी पीढ़ी खत्म हो जाएगी और अंग्रेजी वाली पीढ़ी ही इस धरती पर बचेगी..तब शायद आप भी हमारे साथ इस धरती से विदा हो जाओ। 
भले ही आप कहो कि आपमें कोई बुराई नहीं..लिखी हुई अच्छी लगती है..बोलने में तो और भी मीठी लगती हो..सुनने में कर्ण प्रिय हो..पर मुश्किल ये है कि दुनिया अब छोटी हो गई है और अब भारत दुनिया को अपने में आत्मसात करने लगा है इसलिए खुद का चोला त्याग रहा है..दूसरों की खाल पहन रहा है ताकि वो भी दूसरे देशों जैसा दिखने लगे..ये बात अलग है कि चीन हो या अमेरिका..या जापान..उन्होंने शक्ति बनने के लिए अपनी भाषा नहीं त्यागी..लेकिन हमारी मजबूरी है क्योंकि हम नेता नहीं हैं..कार्यकर्ता हैं..हां कुर्ता-पाजामा पहनकर दुनिया को नेता बनने के लिए मना रहे हैं..इसलिए आपको त्याग कर हम पिछड़ेपन की निशानी हटाना चाहते हैं क्योंकि दुनिया का कहना है कि अंग्रेजी के बिना तरक्की नहीं..क्योंकि वो तरक्की पर हैं इसलिए हम भी चाहते हैं कि आपको त्याग कर शायद तरक्की पा लें...इसलिए आपको जाना होगा...हां ये बात अलग है कि यदि तरक्की न  पाए और फिर भी खो दिया..तो आपको कितना दुख होगा..इसकी किसी को चिंता नहीं है। बाकी फिर...

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Saturday, September 12, 2015

डेंगू का डंक कब तक डसता रहेगा?

दिल्ली का लाडो सराय इलाका...उड़ीसा में केंद्रपाड़ा के रहने वाले लक्ष्मीचंद्र..पत्नी बबीता और सात साल का बेटा अविनाश..जिसे प्यार से घर में बिट्टू बुलाते थे। लक्ष्मीचंद्र गुड़गांव की एक प्राइवेट कंपनी में सीनियर पोस्ट पर थे..हंसी-खुशी जिंदगी कट रही थी..अचानक बिट्टू को बुखार आया..पास के एक क्लीनिक में इलाज कराया...जांच में पता चला कि बच्चे को डेंगू है। बच्चे की तबियत जब ज्यादा बिगड़ने लगी तो उन्होंने साकेत के मैक्स अस्पताल..लाजपत नगर के मूलचंद अस्पताल...कालका जी के इरीन अस्पताल..मालवीय नगर के आकाश अस्पताल और साकेत सिटी अस्पताल के चक्कर काटे..लेकिन सभी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों की भीड़ के कारण भर्ती नहीं किया गया। आखिरकार बत्रा अस्पताल में उसे भर्ती कराया गया और अगले दिन ही उसकी मौत हो गई। एक बच्चा..और उसकी भी मौत हो जाए..तो माता-पिता के जीवन में कितना दुख होगा..कहने की जरूरत नहीं।

बच्चे को छतरपुर के श्मशान घाट में दफनाने पहुंचे..पिता लक्ष्मीचंद्र ने फावड़े से खुदाई की और उड़ीसा के रीति-रिवाज के हिसाब से पिता ने बच्चे के दाएं हाथ की उंगली को उसके मुंह में लगाया और बेटे से धीरे से कान में कहा-बेटा बिट्टू..मम्मी इंतजार कर रही हैं..जल्दी आना। रिश्तेदार के मुताबिक..ऐसी मान्यता है कि मां के कोख में वही बच्चा जन्म लेता है। बेटे की मौत से मां टूट गई..बेहोशी की हालत थी..रात 12 बजे तय हुआ कि उड़ीसा चले जाएंगे..लेकिन पत्नी का आईकार्ड न मिलने से बुकिंग नहीं हुई। रात को पत्नी के पिता ने लक्ष्मीचंद को दिलासा दिया लेकिन लक्ष्मीचंद्र ने कहा कि उन्हें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दें..और यही गलती भारी पड़ गई। दोनों एक कमरे में बंद हो गए। रात एक बजे दोनों चुपचाप कमरे से निकले..फ्लैट के बाहर की कुंडी लगा दी..सुबह जब लोग उठे तो देखा कि कमरे में दोनों नहीं है..बाहर से कुंडी बंद है। मोबाइल से पड़ोसियों को बुलाया गया। परिवार..रिश्तेदार श्मशान घाट पहुंचे कि कहीं दोनों वहां तो नहीं है..लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि फ्लैट के पीछे छत से कूदकर दोनों जान दे चुके थे। कमरे में सुसाइड नोट रखा हुआ था।

ये है भारत की असल तस्वीर..देश की राजधानी..जहां डेंगू का इलाज संभव नहीं..डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया..बुलेट ट्रैन..स्मार्ट सिटी और न जाने हम क्या-क्या सोच रहे हैं। हम ये सोच नहीं पा रहे कि देश की राजधानी में इलाज की ये हालत...जहां प्राइवेट अस्पतालों में भी बच्चों को भर्ती कराने का इंतजाम नहीं..सरकारी अस्पतालों की तो बात करना ही बेकार है। अब पांच अस्पतालों को नोटिस जारी हुए हैं..जांच हो रही है..जैसा हर केस में होता है..लेकिन एक मासूम की जान गई और उसके माता-पिता की भी...अगर बच्चे का सही से इलाज हो जाता है तो शायद तीनों जानें बच जातीं। राजनीति पर तो हम बहुत चर्चा करते हैं..इस दुखद हालात पर हम चर्चा क्यों नहीं कर पाते..इसलिए नहीं करते क्योंकि इससे हमारा सीधा सरोकार नहीं..इसमें हमारा कोई फायदा नहीं...उड़ीसा के इस परिवार से हमारा कोई लेना-देना नहीं..लेकिन जब किसी पर गुजरती है तो वो समझता है कि ये भयावह स्थिति आज भी बनी हुई है। क्यों बनी हुई है.इसका जवाब किसी के पास नहीं..बाकी फिर.....

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Friday, September 11, 2015

हिंदी चिंदी-चिंदी

भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर लोगों को उतनी चिंता नहीं थी..जितनी बिग बी के आने को लेकर थी और हिंदी पर बोलने को लेकर थी...क्या अमिताभ बच्चन हिंदी के मर्मज्ञ हैं..या उनके पिता जी थे..इस तरह के सवाल साहित्य जगत ने उठाए..मीडिया ने उठाए...उधर भोपाल जितना हिंदी को लेकर उत्सुक नहीं था..उतना बिग बी लेकर था..और जब ये खबर आई कि बिग बी नहीं आएंगे तो लोग मायूस हो गए..मीडिया भी मायूस हो गया कि हिंदी खत्म हो या न हो...ग्लैमर जरूर खत्म हो गया...बहस का अच्छा खासा मुद्दा खत्म हो गया..उनके आने की खबर से बढ़िया मुद्दा तैयार हो गया था..इस पर कई घंटों की बहस की सामग्री तैयार हो गई थी..अब लोग ये कह रहे हैं..कि दांतों की समस्या को लेकर अमिताभ बच्चन ने हिंदी को त्याग दिया..उन्हें दांत दर्द को छोड़कर हिंदी के लिए जरूर आना चाहिए था। कुछ पत्रकार खुश हैं कि उन्हें हिंदी सम्मेलन में बुलाया गया..साहित्यकार खुश हैं..दनादन सेल्फी डाल रहे हैं...जिन्हें नहीं बुलाया गया..वो नाराज हैं..कोस रहे हैं...और कह रहे हैं कि वो तो खुद ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं होना चाहते..

सवाल कई हैं..जिस देश में बच्चा पैदा होते ही हिंदी बोलता हो..उस देश में हिंदी को बचाने के लिए..उसे समृद्ध करने के लिए..उसे सरंक्षित करने के लिए..उसके प्रचार-प्रसार के लिए..जब हिंदी दिवस मनाया जाने लगे..जब सम्मेलन किए जाएं..जब कार्यशालाएं हों..जब प्रचार-प्रसार समिति बनाईं जाएं...जब हिंदी अधिकारी रखे जाएं..तब समझ लो...कि हिंदी चिंदी-चिंदी हो गई है। जैसे कोई मां अपने बेटे को बचाने के लिए प्रार्थना करती है..गुहार लगाती है..डाक्टर के पास जाती है...कुछ ऐसा ही आज हिंदी के साथ हो रहा है। जैसे हम रोज भोजन करते हैं...कपड़े पहनते हैं...सोते हैं..दैनिक क्रियाएं करते हैं..वैसे ही हिंदी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। भारत की अदालत में हिंदी नहीं चलती...कई सरकारी कार्यालयों में हिंदी में काम नहीं होता..कई आवेदन हिंदी में नहीं भरे जाते..कंप्यूटर पर बहुत सारे काम हिंदी में नहीं हो सकते। ये धारणा..ये परंपराएं..या अनिवार्यता बना दी गई..लेकिन जब मौका पड़ता है..जब माहौल बनता है तो मोबाइल में भी हिंदी भाषा आ जाती है...कंप्यूटर पर भी हिंदी में काम होने लगता है..और कंपनियां भी हिंदी में काम करने का अवसर देने लगती हैं।
इसके बावजूद  हिंदी को हमने ही जिस उपेक्षा का..जिस हीन भावना का..दूसरे दर्जे का..शिकार बना दिया और अब उसे बचाने के लिए कोशिश कर रहे हैं..उसे समृद्ध करने की बात कर रहे हैं। जैसे कोई बेटा..अपनी मां को धक्के मारकर बाहर निकाल दे..और बाद में उसे शर्म आए..या फिर समाज का लोकलाज लगे तो कहें कि नहीं मां के साथ गलत हुआ है..मां को बचाना है..मां को संरक्षित करना है..मां को समृद्ध करना है।
सोशल मीडिया पर हिंदी को लेकर जितनी बहस चल रही है..मीडिया में जितने चर्चे हो रहे हैं..उनमें फोकस इस बात पर है कि कौन आ रहा है..क्यों आ रहा है..किसको बुलाया..किसको नहीं बुलाया..और हिंदी की चिंदी किस तरह हो रही है इसके लिए हिंदी सम्मेलन के आसपास लगे अंग्रेजी के पोस्टर...सम्मेलन स्थल पर गलत लिखी हिंदी की तस्वीरें चस्पां हैं। अच्छा ये होता है कि एक हिंदी की प्रतियोगिता रख ली जाती..जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सभी से हिंदी भाषा पर एक निबंध लिखवा लेते...और फिर तय करते..कि कितने लोग हैं जिन्हें हिंदी आती है या नहीं...बचपन से हिंदी में पढ़ रहा हूं..लिख रहा हूं...पर मैं सच्चाई के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं हिंदी का मर्मज्ञ नहीं..मैं ये दावा नहीं कर सकता कि मुझे हिंदी सही से लिखनी आती है। हां..हिंदी शुरू से लिखने-पढ़ने-बोलने की कोशिश जरूर कर रहा हूं और आज भी जब किसी शब्द पर अटकता हूं तो दूसरों से पूछ लेता हूं कि ये सही हिंदी है या नहीं..ये तो मेरा हाल है जब मुझे इस भाषा में काम करते-करते 45 साल हो गए..और तो और हिंदी के शब्द कम बचे हैं..उसमें हम उर्दू..फारसी और अंग्रेजी के इतने शब्द शामिल कर चुके हैं..कि आने वाले दिनों में वैसे ही कुछ प्रतिशत ही शब्द हिंदी के बच पाएंगे...अब तो आने वाली पीढ़ी पूछती है कि 7 को हिंदी में कितना बोलते हैं...बाकी फिर......

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Thursday, September 10, 2015

खेल-खेल में....

गुड़गांव की चार साल की ऋतिका को कार में खेलने का बड़ा शौक था..आटोमेटिक लाक का बटन दबाकर कार को खोलना और बंद करने में बड़ा मजा आता था। स्कूल से लौटने के बाद उसने कार की चाबी उठाई और अपनी छोटी बहन हिमांशी के साथ कार के पास खेलने को निकल गई...कार को खोला..दोनों अंदर बैठ गईं और फिर कार को लाक किया..लेकिन जब अनलाक किया तो कार के दरवाजे नहीं खुले...तेज धूप में खड़ी कार में दम घुटने से कुछ ही देर में बेहोश हो गईं। घरवालों को जब दोनों काफी देर तक नजर नहीं आईं तो तलाश शुरू हुई और दो घंटे बाद उन्हें कार में दोनों मिलीं। बेहोशी की हालत में दोनों बहनों को अस्पताल ले जाया गया..लेकिन बच नहीं सकीं।

ये पहला हादसा नहीं है..घर की पानी की टंकी में छिपने के चक्कर में बच्चे भीतर घुस जाते हैं..और ढक्कन बंद होने के बाद जब नहीं खुलता..तो उनकी मौत हो जाती है। बोरवेल के किस्से तो टीवी चैनलों पर कई बार चल चुके हैं। यही नहीं...कार में बच्चों को अकेले छोड़कर जाना तो आम बात है..एक सज्जन तो सड़क पर कार खड़ी कर गए..बच्चा अंदर छोड़ गए..और ट्रैफिक पुलिस उस कार को उठा ले गई..जब पता चला कि तो हैरान-परेशान होकर भागे...एक और घटना ऐसी ही है..बच्चे चोर-सिपाही खेल रहे थे...एक बच्चा ऊपर स्टोर रूम में बंद हो गया..सटकनी लगा तो ली..लेकिन खोल नहीं पाया...कई घंटों बाद पता चला..उसकी मौत हो चुकी थी।कई बच्चे घर के बाहर खेलते-खेलते गायब हो गए। ऐसी कई घटनाएं हम रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते रहते हैं..देखते रहते हैं...जरूरत है सबक लेने की..

कई बार माता-पिता सोचते हैं कि बच्चों पर लगातार नजर रखो..उन्हें अपने हिसाब से चलाओ..जब माता-पिता चाहें..वो पढ़ाई करें..जब चाहें..खेलने के लिए भेजें..जो खिलाना चाहते हैं..वही खिलाएं..लेकिन ऐसा नहीं होता..बच्चों का अपना मन होता है..न आपसे हमसे कोई जबर्दस्ती कर सकता है और न ही बच्चों से...उन पर चौबीस घंटे नजर रखना भी ठीक नहीं..लेकिन इसके साथ ही ऐसी लापरवाही भी नहीं करनी चाहिए..जैसी ऊपर दी घटनाओं में हुई। माता-पिता नौकरी पर गए हैं..बच्चे या तो मेड के सहारे हैं या फिर दादा-दादी के सहारे..और वो भी कितना ध्यान दे सकते हैं...उनकी अपनी मजबूरियां हैं..काम हैं..आराम करना है..इन सबके बीच जब बच्चों को यूं ही छोड़ देते हैं तो ऐसे गंभीर नतीजे सामने आते हैं। उन्हें अपने मन की करने दें..लेकिन जहां जरूरी है..जहां खतरा है..वहां उन पर नजर जरूर रखें...खासकर घर से बाहर जाते वक्त..और जब बच्चे काफी देर तक आपकी नजरों से ओझल हैं तो हमें सावधानी बरतने की जरूरत है। वो कहीं कोई मुश्किल में फंस सकते हैं। छोटे बच्चे जो भी कर रहे हैं..उन्हें आप आगे बढ़ाना चाहते हैं..जरूर बढ़ाएं..लेकिन अपनी निगरानी में...बाकी फिर......

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एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है!

अंधेर नगरी चौपट राजा

एक राजा था, जिसे अपनी प्रजा से कोई मतलब नहीं था, अपने में मस्त रहता था, सुरा-सुंदरी में मग्न, भोग विलासिता के अलावा उसे किसी से मतलब नहीं...उसके राज्य में कोई भी संकट आए..कोई भी समस्या आए...कोई मतलब नहीं..अपने मंत्री से कह देता..वो अपने हिसाब से देख ले..बस उसके मनोरंजन का इंतजाम में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए...24 घंटे बस मनोरंजन या कहें अय्याशी में डूबे रहना....

नतीजा क्या निकला...राज्य की हालत बिगड़ती गई..उसके मंत्री और बाकी सर्वेसर्वा भी मौका देखकर लूट में लग गए...लूट-खसोट का आलम ये हुआ..कि राज्य में अराजकता फैल गई..और राजा के खिलाफ बगावत हो गई..फिर भी राजा गंभीर नहीं हुआ..उसे लगा कि जितना वक्त मिला है बस भोग करते जाओ...आखिरकार उस राजा का अंत हो गया..दूसरे राज्य का कब्जा हो गया..जो उसके कारिंदे थे..वो उससे ऊपर आ गए..राजा जेल में डाल दिया गया..और सड़-सड़ कर मर गया।
ये कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि कहा जाता है जैसा राजा..वैसी प्रजा...यही बात किसी संस्थान के लिए लागू होता है..किसी परिवार के लिए लागू होता है। जहां हम समूह में काम करते हैं तो उसका मुखिया तय करता है कि उस संस्थान या परिवार को कैसे चलाना है। उनके क्या कायदे-कानून होंगे..क्या अनुशासन होगा..क्या मेहनत होगी..क्या पारिश्रमिक होगा..क्या परंपराएं होंगी..एक पूरा ढांचा तैयार होता है। जाहिर है जैसा मुखिया होता है..वैसा ही वो अपने दाएं और बाएं चुनता है। उसके बाद जो उप प्रमुख होते हैं..वो भी उसकी ही छवि लेकर चलते हैं...उसके पालन में आगे काम करते हैं..फ्रंट में रहते हैं। जो दाएं-बाएं होते हैं वो अपनी उंगलियां भी वैसी ही बनाते हैं..यानि उनके साथ जो कर्मचारी काम कर रहे हैं..वो चाहते हैं कि उनके साथी उन्हें फालो करते हैं..उन्ही के हिसाब से ढल जाए...ये क्रम ऊपर से नीचे चलता है।
फिर इस क्रम में एक तालमेल होता है और संतुलन होता है..सुख-दुख होता है..अच्छा-बुरा होता है...गलत और सही होता है..लेकिन जब पूरा फ्रेम वर्क बनता है तो वो कंपलीट होता है..एक सुंदर तस्वीर सामने आती है..लेकिन जहां इमारत में एक धब्बा होता है तो पूरी की पूरी इमारत बेकार हो जाती है...हर आदमी इमारत के उस धब्बे पर नजर डालता है..उसकी खूबसूरती पर नहीं...यही हाल संस्थान का होता है कि यदि पूरा तालाब अच्छा है लेकिन एक मछली तालाब को गंदा कर रही है तो तालाब का अस्तित्व बिगड़ जाता है..वो तालाब उस एक मछली की वजह से गंदा ही कहलाता है। अगर ये सोचकर हम उसे छोड़ देते हैं कि पूरे तालाब में सैकड़ों लोग है..अगर एक मछली कुछ गंदा भी कर रही है तो क्या हुआ? वहीं हम सबसे बड़ी गलती कर बैठते हैं...अगर आपके संस्थान का एक सदस्य खराब है..या फिर आपके परिवार का एक शख्स खराब है तो पूरी छवि बिगड़ जाती हैं और बाकी की सारी मेहनत खराब हो जाती है। जब हम उस सदस्य को लेकर चुप बैठते हैं..उसे यूं ही कह कर छोड़ देते हैं तो वही आपके विनाश का कारण बन जाता है..आपके विनाश से मतलब उस परिवार में जितने लोग हैं..या फिर उस संस्थान में जितने लोग है..उनके पतन की शुरूआत वहीं से होती है..और एक से ज्यादा हैं तो फिर धराशायी होने में उतना ही कम वक्त लगता है। ऐसे तमाम ग्रुप हैं..तमाम संस्थान हैं..तमाम परिवार हैं जिन्हें धराशायी होते देखा है..किसी दूसरे के कारण नहीं..उसके मुखिया के कारण..या तालाब में उन गंदी मछलियों के कारण...तो जीवन दर्शन यही कहता है कि ऐसे तत्वों को चुपचाप सहन न करें..उन्हें यूं ही न छोड़ दें..और ये न समझें कि जब हमसे वास्ता होगा..तब हम बोलेंगे...सब कुछ खत्म हो जाएगा...और फिर आप कुछ नहीं कर पाएंगे....बाकी फिर......

Wednesday, September 9, 2015

जो डर गया..वो मर गया

नई दिल्ली में दो बहनें हैं एक नाम है सुरभि और दूसरी का सिमरन..21 साल की सुरभि कानून की पढ़ाई कर रही है और बच्चों को टयूशन भी पढ़ाती है.. 19 साल की सिमरन साइंस से ग्रेज्यूएशन कर रही है। दोनों रात नौ बजे अपने 8 साल के छोटे भाई के लिए बर्थडे गिफ्ट और केक लेकर लौट रही थीं। घर के पास स्ट्रीट लाइट बंद थी जिस वजह से गली में अंधेरा छाया हुआ था....छोटी बहन सिमरन सीढ़ियों से घर के अंदर दाखिल हो चुकी थी जबकि सुरभि नीचे थी..एक हाथ में सामान था और दूसरे हाथ में मोबाइल से बात कर रही थी..तभी किसी ने पीछे से अचानक उसकी गर्दन दबोची और मुंह को दबा दिया ताकि चीख न निकल पाए। इसके बाद बदमाश उसका पर्स और मोबाइल छीनने लगा।

यहां तक बदमाश की बारी थी..उस लड़की ने बिना पीछे देखे..पलटकर जोरदार मुक्का उस शख्स के मुंह और पेट में जड़ दिया। बदमाश पेट पकड़कर कराहता हुआ भागा..इसके साथ ही लड़की चोर-चोर की आवाज लगाती हुई चिल्लाने लगी। छोटी बहन ने जैसे ही आवाज सुनी..वो भी ऊपर से नीचे सीढ़ियों से भागी और दोनों बहनों ने उस बदमाश का पीछा करना शुरू किया। इस भागदौड़ में बाकी लोग तमाशा तो देखते रहे लेकिन किसी ने साथ देने की नहीं सोची। नई दिल्ली के शादीपुर मेट्रो स्टेशन के पास एक और पैदल जा रहे शख्स की मदद से दोनों बहनों ने उस बदमाश को पकड़ लिया और कराटे के दांव-पेंच से नीचे गिरा दिया..बदमाश बेहोश होने का ड्रामा करने लगा लेकिन तब तक भीड़ तंत्र इकट्ठा हो चुका था..उसकी जमकर धुनाई हुई। इसके बाद पुलिस को बुला लिया गया।
इन दोनों लड़कियों ने दिल्ली पुलिस की सेल्फ डिफेंस प्रोगाम में ट्रेनिंग ली थी..जहां उन्हें जूडो-कराटे के कुछ टिप्स सिखाए गए थे कि कैसे बदमाशों पर पलटकर अटैक करना है। जैसे पीछे से कोई पकड़े हैं तो अपनी कुहनी को पीछे जोर से मारना है। मुंह पर किस तरह मारना है। सेफ्टी के लिहाज से ये लड़की बैग में पेपर स्प्रे लेकर चलती है। ट्रेनिंग तो काम आई ही..सबसे ज्यादा काम आया लड़कियों का आत्मविश्वास।
कहते हैं कि जो डर गया..वो मर गया...यदि आप में आत्मविश्वास है..हिम्मत है..हौसला है..तो इस तरह के सुखद नतीजे सामने आते हैं। उस बदमाश में भी आत्मविश्वास था..गलत काम के लिए...बल्कि अति आत्मविश्वास था..जिसे ओवर कान्फीडेंस कहते हैं...उसने लड़कियों का पीछा कर घर के बाहर लूटने का दुस्साहस जुटाया...यदि लड़कियां कमजोर होतीं..डरपोक होतीं..तो वो लूट कर चला जाता..और रो-पीटकर कोई कुछ नहीं कर पाता। उनमें इतनी हिम्मत थी..जितनी उस बदमाश में नहीं थी..इसलिए उस पर भारी पड़ीं...बेहतर जीवन हमें यही सिखाता है..कि जीवन जीयो तो हिम्मत के साथ जीयो...डरकर नहीं। उन्होंने बाकी लड़कियों को भी कहा है कि प्लीज..डरो मत..मुकाबला करो। बाकी फिर.......

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Tuesday, September 8, 2015

चेहरे को पढ़ना सीखिए....

शहर-हैदराबाद..एक 18 साल की लड़की..दूसरी 21 साल की लड़की...दोनों घर से अचानक लापता हो गईं..घर-परिवार परेशान..नाते-रिश्तेदार..आस-पड़ोस सब चिंतित...आखिर कहां गईं लड़कियां...पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी गई..लेकिन कई दिन बीत गए...पुलिस भी उनका पता लगा पाने में नाकाम..आजकल पुलिस के पास किसी को सर्च करने का सबसे बड़ा हथियार..मोबाइल...और सोशल मीडिया है....दोनों लड़कियां का मोबाइल सर्विलांस पर लगाया गया..लेकिन फोन बंद..पुलिस भी हैरान-परेशान..परिवार वाले पुलिस पर आरोप लगाने लगे कि वो नाकाम है..लापरवाह है..मानवाधिकार संगठनों के पास जाने की कोशिश हुई...

अचानक पुलिस को पता चला कि इन दोनों लड़कियों के मोबाइल हैदराबाद में ही किसी दुकान पर बेचे गए हैं..अब पुलिस के लिए मोबाइल का पता लगाना आसान हो गया..पुलिस दुकान पर पहुंची तो पता चल गया कि उन्हीं दोनों लड़कियों ने ही मोबाइल बेचे हैं...अब पुलिस का माथा ठनका..कि ये अपहरण नहीं..कुछ दाल में काला है...यहां से पुलिस आगे बढ़ी..और जो खुलासा हुआ..उस पर न तो पुलिस को भी भरोसा नहीं हो रहा था..घरवालों को भरोसे का सवाल ही नहीं होता।
इन दोनों लड़कियों ने सौ से ज्यादा फेसबुक प्रोफाइल बना रखे थे....सबके सब फर्जी...किसी और नाम से..उन पर फोटो...सुंदर और स्मार्ट लड़कियों के लगा रखे थे..फेसबुक पर दोस्ती गांठने के बाद फोन पर बात होती थी..और फिर उनसे पैसे एेंठती थीं...उनसे गिफ्ट लेती थीं...और जो नहीं मानता था..उसे ब्लैकमेल करने की धमकी देती थी। ऐसा उन्होंने केवल हैदराबाद में ही नहीं...आठ राज्यों में किया..जिनमें..देहरादून..बेंगलुरू..विशाखापट्टनम..लखनऊ भी शामिल हैं। अकेले हैदराबाद में ही पुलिस ने ऐसे 17 लड़कों को हिरासत में लिया..जो इन लड़कियों के झांसे में आए....जब मीडिया उस लड़की से बात कर रहा था...तो लड़की का दुस्साहस देखिए...उसने कहा कि क्या आप फ्रेंड नहीं बनाते हैं..आपकी फेसबुक पर कितने फ्रेंड हैं..क्या कोई ऐसा लड़का है जिसकी लड़कियां फ्रेंड नहीं है..मेरे मामा की ही सैकड़ों हैं। मैंने किसी से पैसे नहीं लिए..मैंने किसी को रिक्वेस्ट नहीं भेजी..अगर लड़के खुद फ्रेंड बनते हैं तो मेरा क्या कसूर...वगैरह-वगैरह..
वाकई ये सब हैरान कर देने वाला है...हैदराबाद में मुझे कुछ वक्त रहने का मौका मिला है...वाकई शानदार शहर है..खासकर पढ़ाई के मामले में...अव्वल दर्जे की पढ़ाई है..पूरे देश में मशहूर है..ऐसे शहर में..ऐसी लड़कियां...इसके लिए शहर को दोष नहीं दे सकते...दोष शायद परिवार वालों का भी न हो...आपके हमारे बच्चे के भीतर क्या पल रहा है..आप नही जान सकते..मेरे भीतर क्या पल रहा है..मेरे अलावा कोई नहीं जान सकता..आपके भीतर क्या पल रहा है...आपके अलावा कोई नहीं जान सकता....हर मां-बाप अपने बच्चों को अच्छा बनाना चाहता है...अच्छे संस्कार देने की कोशिश करता है लेकिन  चूक हम कहां कर जाते हैं..जब हम अपने बच्चों को नादान समझकर भरोसा कर बैठते हैं...भरोसा आंख मूंद कर नहीं किया जाता...सोच-समझ कर किया जाता है..चाहे आपका बच्चा ही क्यों न हो?....
इस घटना से उन माता-पिता को तो सबक है ही...उन लड़कों को भी है जो फेसबुक की चकाचौंध में स्मार्ट और सुंदर लड़कियों के पीछे भागते हैं...सुंदरता तन से नहीं होती..मन से नहीं होती...सोशल मीडिया अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए है..जानकारी जुटाने के लिए हैं...मनोरंजन के लिए भी है लेकिन नौजवानों को लगता है कि ये केवल किसी लड़के या लड़की को पटाने के लिए है..इसलिए अच्छी फोटो देखकर उस पर लपक लेते हैं...फेसबुक को छोड़िए..अगर सामने भी किसी लड़की को देखते हैं तो उसके चेहरे पर मर-मिटते हैं...पर यकीन मानिए...लड़कियां हों या लड़के..कोई भी हो..चेहरे पर मत जाईए..चेहरे पर चेहरे हर कोई लगा के घूम रहा है। जब नकाब उठता है तो पता चलता है कि वो कोई और है...जैसे उन लड़कियों के चेहरे से उठा है..उन लड़कों के चेहरे से भी उठा है...तो जीवन में इन चेहरों को कैसे पढ़ना है..कैसे परखना है..कैसे महसूस करना है..ये आपके ऊपर है..गलती करेंगे तो पछताएंगे....बाकी फिर......

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