Wednesday, September 30, 2015

wrong way of life

गाय का मांस यदि कोई खाता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं..इस लाइन से मैं सहमत हूं..लेकिन इस लाइन से नहीं कि हम कानून को अपने हाथ में लेते हुए किसी को मौत के घाट उतार दें। ये दोनों लाइन सुर्खियों में हैं..कोई किसी के पक्ष में है तो कोई किसी के विरोध में.मैं न तो इसके पक्ष में हूं और न विरोध में।

गाय को करोड़ों देशवासी अपनी मां के समान मानते हैं..गाय ही क्या..कोई भी जानवर हो..उसे मौत के घाट उतारने का हमें अधिकार नहीं..और अधिकार भी है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। मेनका गांधी जी..पशु-पक्षियों की देश में सबसे बड़ी पक्षधर मानी जाती हैं..उन्होंने सर्कसों में जानवरों के इस्तेमाल पर पाबंदी से लेकर स्कूल-कालेज की लैब में मेढक तक काटने को लेकर अभियान चलाए हैं..लेकिन जब गाय काटने की बात आती है तो बहुत सारे लोगों का मौन..उनकी मजबूरी..उनके स्वार्थ की पोल खोल देता है। ऐसे तमाम राजनेता हैं जो खुद गाय की पूजा करते हैं..उनके घर में गौमाता पूजी जाती है और जब कोई घटना होती है तो उस पर मौन साध जाते हैं।
यदि किसी ने गौ मांस खाया तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए और यदि उसने नहीं खाया तो केवल एक अफवाह के चलते किसी की जान ले लेना वाकई शर्मनाक है। आजकल अफवाहों का जो हाल है उससे ज्यादा बुरा किसी का नहीं..जिस तरह दिन भर तरह-तरह की अफवाहें फेसबुक और whatsapp पर एक जगह से दूसरी जगह फैलने लगी हैं..उससे किसी का भी कितना भी नुकसान हो सकता है और हो रहा है...तस्वीरों को काट-पीट कर चिपका देना और फिर उसे भेजते रहना..तरह-तरह के उकसाने वाले स्टेटमेंटस कट पेस्ट कर सोशल मीडिया पर सर्कुलेट कर देना रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हो गया है और इसके जरिए भावनाएं भड़का कर अपने स्वार्थ को बखूबी अंजाम दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में ऐसी कई घटनाएं पिछले सालों में हो चुकी हैं जिसमें एक-दो नहीं कई लोगों की जानें गई हैं और पूरे इलाके का भाईचारा तहस-नहस कर दिया गया है। इस काम में न केवल राजनेता बल्कि बिल्डर भी लगे हुए हैं जो एक संप्रदाय को किसी इलाके से बेदखल करने के लिए ऐसे षडयंत्र रच रहे हैं। कोई अपने वोट के लिए इस तरह के खतरनाक साजिशों को अंजाम दे रहा है।
कोई कितना भी गलत करे..हमें ये अधिकार नहीं कि हम उस पर फैसला सुनाएं...साथ में ये भी है कि जो गलत काम कर रहे हैं..उन्हें सोच लेना चाहिए कि भविष्य में गलत करने के पहले एक बार जीवन के बारे में सोच लें..नहीं तो इस देश में कुछ भी होता आया है और आगे कुछ भी हो सकता है...बाकी फिर.....

मोह किससे होता है...

हम हर महीने कोई न कोई ड्रेस अपने लिए खरीदते हैं..परिवार के बाकी लोग भी खरीदते हैं। जो नई ड्रेस लाते हैं..उसे बार-बार पहनने का मन करता है..और पुरानी ड्रेस को हम हेय दृष्टि से देखने लगते हैं..मन ही मन कहते हैं कि अब तुमसे अच्छी और नई ड्रेस हमारी जिंदगी में आ गई है। ये बात अलग है कि उस ड्रेस को फेंकते नहीं। तब तक नहीं फेंकते..जब तक उस ड्रेस को घर में रखने की समस्या नहीं आती। हैंगर पर टंगी ड्रेस महीनों इंतजार करती रहती है लेकिन उसे बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता। ये बात अलग है कि जिस दिन वो ड्रेस आई थी..उस दिन उसका घर में जोरदार स्वागत हुआ था..नई नवेली दुल्हन की तरह..उलट-पलट कर देखने के साथ ही..जब पहली बार पहना तो उसकी वजह से ही हमारी शान थी लेकिन पुरानी होते ही वो कबाड़ का हिस्सा बन गई। ऐसी ही दर्जनों ड्रेस अलमारी में टंगी हैं लेकिन उन्हें निकाल कर फेंकने का मोह नहीं छूटता।

ड्रेस का तो एक उदाहरण है..जीवन में ऐसी तमाम वस्तुएं हैं जिनका घर में भंडार होता है..हम नया टीवी ले आते हैं..नया म्युजिक सिस्टम ले आते हैं..नई क्राकरी ले आते हैं..नए मोबाइल ले आते हैं..नए जूते-चप्पल ले आते हैं लेकिन जब तक वो सही सलामत हैं..उन्हें फेंकने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लगता है कि पैसे लगाए थे..इसलिए इन्हें क्यों फेंको..शायद कभी काम आ जाएं..हालांकि उन्हें कभी काम नहीं आना है..उन्हें हम तब ही फेंकने की जहमत उठाते हैं..जब जगह की दिक्कत होने लगती हैं या फिर टूट-फूट हो जाती है। नहीं तो सैकड़ों वस्तुएं हमारे घर में ऐसी होती हैं जिन्हें हम सालों से ढो रहे हैं और वो जस के तस अलमारी में पड़ी हुई है। अगर गौर से हम इन सारी वस्तुओं पर नजर डालें..तो आधी से ज्यादा ऐसी वस्तुएं हैं जिनका हम बिलकुल उपयोग नहीं कर रहे और न ही आगे करना है..क्योंकि आज जिनका उपयोग कर रहे हैं..उनकी जगह नई चीज आनी ही है। अगर हम कोई सामान बाहर निकालते भी हैं तो तब निकालते हैं जब एक जैसी कई वस्तुएं आपके पास हो जाती हैं और तब आप बड़ी मुश्किल में सबसे पुरानी वस्तु को किनारे लगाने की हिम्मत जुटा लेते हैं। ये सोच कर कि अब एक साथ इतनी सामग्री घर में कहां समाएगी।
यही है मोह..जो समय के साथ अपनी प्राथमिकता बदलता रहता है..जो हमारे लिए अनुपयोगी हो जाता है..उसे हम लंबे अरसे तक ठंडे बस्ते में डाले रहते हैं लेकिन उसे हम जीवन से इसलिए नहीं निकालते..कि कहीं काम आ गया तो.. जब बिलकुल निश्चिंत हो जाते हैं या फिर जब आपकी क्षमता से ज्यादा अनुपयोगी सामग्री इकट्ठी हो जाती है तो उसे त्याग देते हैं। जो पा लिया..उससे मोह कम हो जाता है..जो पाना है उससे ज्यादा मोह होता है..जो बरसों पहले पाया था..वो मोह किनारे लग जाता है..वो सामान्य श्रेणी में नहीं आता..जो हमसे जितना दूर है..उससे उतना ही ज्यादा मोह होता है। बाकी फिर......

Tuesday, September 29, 2015

दूसरों को बेवकूफ मत समझो

जब हम किसी से मिलते हैं..पहली दफा बात करते हैं..मुलाकात करते हैं..तो हम सामने वाले को इंप्रेस करना चाहते हैं..हम उसे जताना चाहते हैं कि हम दुनिया में सबसे बुद्धिमान, होशियार, समझदार, काबिल, जानकार, मेहनती, ईमानदार..संघर्षशील इंसान हैं..और हमारे अलावा दुनिया में कोई विकल्प नहीं। हम ये भूल जाते हैं कि हम जिसके सामने बैठे हैं..वो खुद के बारे में भी यही समझता है..और वो भी जीवन के बारे में बहुत कुछ जानता है..और हो सकता है कि आपके बारे में भी पहले से बहुत कुछ जानकारी रखता हो..या आप उससे मिलने जा रहे हो..तो वो आपके बारे में पहले से पता कर चुका हो।

एक मित्र बता रहे थे कि किसी बड़ी शख्सियत से उनकी मुलाकात हो रही थी..वो इसी मुगालते में थे कि मेरे बारे में कुछ नहीं जानता है..ये सही भी था लेकिन वो तब तक नहीं जानता था..जब तक कि उसे मित्र से लेना-देना नहीं था..जब मुलाकात तय हो हुई तो मिलने वाली शख्सियत ने उनके बारे में कुछ ही घंटों में सारी जानकारी खंगाल ली। मुलाकात हुई..मुलाकात अच्छी रही..और उसके बाद रिजल्ट भी अच्छा आया लेकिन रिजल्ट आने के बाद मित्र को पता चला कि वो उनके बारे में पहले ही जानकारी जुटा चुके थे..तब उन्हें एहसास हुआ कि हम किसी को अंधेरे में रखने की कोशिश करें..या बढ़-चढ़ कर खुद को पेश करें..उससे सामने वाला प्रभावित होने वाला नहीं..हां ये जरूर हो सकता है कि यदि हमने शेखचिल्ली के हसीन सपने दिखाए..या फिर बड़ी-बड़ी डीगें मारी तो सामने वाला समझ जाएगा कि आप फेंकू हो..और जब एक बार में इतनी फेंक रहे हो..तो पूरे जीवन में न जाने कितनी फेंकी होगी..और किस-किस को फेंकी होगी। जाहिर है कि इसका रिजल्ट उलटा होगा..सामने वाला शख्स आपसे किनारा कर लेगा और आपसे आगे बचने की कोशिश करेगा।
ऐसा हमारे जीवन में हर रोज होता है और सैकड़ों बार होता है..रोज हम नए-नए लोगों से मिलते हैं..कई से जीवन में एक दफा ही मिलते हैं और कई से लगभग हर रोज या अक्सर मिलते हैं। जिनसे हम एक बार मिलते हैं उन्हें या तो हम इंप्रेस नहीं कर पाते हैं या फिर उससे हम इंप्रेस नहीं होते हैं। जिन्हें हम समझ पाते हैं..जान पाते हैं..और उसकी बातों में..उसकी व्यवहार में या फिर उसके कामकाज में एक संतुलन पाते हैं तो हम उससे रिश्ता बना लेते हैं वो रिश्ता दोस्ती का हो सकता है..वो रिश्ता अच्छे इंसान को जानने के स्तर पर हो सकता है। जिन्हें अच्छा समझते हैं..हम उनसे जुड़ना चाहते हैं और जिन्हें अच्छा नहीं समझते..उनसे दूर रहना चाहते हैं। आप अपने को जितना कम बताते हैं..आप अपने को जितना विनम्र रखते हैं और आप अपने को जितना व्यवहारिक बनाते हैं..उससे आपकी लोकप्रियता बढ़ती है और आपसे लोगों के रिश्ते मजबूत होते हैं। हम किसी को बेवकूफ बनाते हैं तो हो सकता है कि सामने वाला बन भी जाए..लेकिन वो भी अपने जीवन में सबक लेता है और आगे उस दोहराव से बचने की कोशिश करता है और आपकी इमेज जो बिगड़ती है तो दूर तक जाती है।  जीवन दर्शन यही है कि जो हम सोचते हैं..उतना ही सामने वाला भी सोचता है इसलिए धरातल पर रहते हैं तो जमीन पकड़े रहते हैं..हवा में उड़ने की कोशिश करते हैं तो भले ही कुछ ऊंचाई तक उड़ जाए..लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं..और जब नीचे गिरते हैं तो कुछ नहीं बचता है...बाकी फिर......

Sunday, September 27, 2015

गूगल-गूगल कहना है....

वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है..ये कहावत वे सब जानते हैं जो वृंदावन गए हैं या फिर वृंदावन की महिमा जानते हैं। आज के जमाने में जिस रफ्तार से गूगल और फेसबुक के साथ ही डिजिटल मीडिया का जुनून छा रहा है उससे साफ है कि हम कितनी ही आलोचना कर लें..कितने ही नफा-नुकसान की बात कर लें..जो चाहे कर लें..लेकिन हम सबको इस धरती पर रहना है तो गूगल-गूगल कहना है। कोई भी क्षेत्र हो, चाहे पढ़ने वाले बच्चे हों..चाहे सरकारी दफ्तर हों..चाहे बिजनेस हो..चाहे धर्म-कर्म हो..चाहे ज्योतिष हो..चाहे आर्थिक-सामाजिक हो..कुछ भी हो..बिना मोबाइल, बिना इंटरनेट और उस पर भी बिना गूगल संभव नहीं।
गूगल कितना ही मुनाफा कमा रहा हो..गूगल भले ही हमारी सारी जानकारी इकट्ठी कर रहा हो..गूगल जो चाहे कर रहा हो..पर हमारी जरूरत बन गया है..हमारी मजबूरी बन गया है और हमारा नया रास्ता बन गया है जिसके बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं लगता। यहां तक कि मंदिर से लेकर पुजारी और साधु-संत भी डिजिटल हो चुके हैं।

एक मित्र हैं..मीडिया में हैं..बड़ा नाम है..एक बार बता रहे थे कि मैनेजमेंट की मीटिंग चल रही थी..किसी जानकारी के बारे में सवाल हुआ..किसी को नहीं मालूम था..हमारा हाथ मोबाइल पर था..गूगल में सर्च किया और उससे सारी जानकारी बता दी. इसमें कुछ ही सेकंड लगे।.बस क्या था..उस मीटिंग में सारे लोग मेरी तरफ देखने लगे। सबको लगा कि कितना जानकार शख्स है..उसमें मेरा कुछ नहीं था..सब गूगल का कमाल था।
किसी का प्रोफाइल देखना है..किसी इलाके के बारे में जानना है..किसी का इतिहास खंगालना है..किसी की अच्छाईयां देखना है..या फिर बुराईयां देखना है..बस कुछ ही सेकंड में सारी जानकारी हाजिर है। हो सकता है कि वो जानकारी गलत भी हो..लेकिन सब कुछ गूगल के भरोसे ही चल रहा है..उसी से हम किसी के बारे में अच्छी या बुरी धारणा बना रहे हैं। उसी के इशारे पर नाच रहे हैं। यही नहीं..ये सब इतनी तेजी से बढ़ता जा रहा है कि गूगल के बिना हम अपनी जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते। गूगल की महिमा का जितना बखान किया जाए..कम है। जाहिर है कि जब कोई बड़ा बन जाता है..जब कोई ताकतवर बन जाता है..जब कोई जरूरत या मजबूरी बन जाता है तो अच्छा हो या बुरा..हमें अपनाना पड़ता है।
इसमें कोई शक नहीं कि गूगल ने जो आइडिया पैदा किया..उसे धरातल पर उतारा और फिर उसमें समय के साथ लगातार बदलाव किए..तो उसके पीछे गूगल की टीम की कड़ी मेहनत है और उसका रिटर्न वो लेगा। कोई भी बिजनेस मैन हो..वो भी दो रुपए की चीज दस और बीस रुपए में बेच रहा है। गूगल जिसे सेवा दे रहा है..उससे कुछ नहीं ले रहा है..वो मुफ्त में दे रहा है। वसूल उनसे कर रहा है जो हमसे कमाई कर रहे हैं। हम जितना गूगल देखेंगे..गूगल को उतनी ही कमाई होनी है। यही हाल फेसबुक का भी है जिसके बिना करोड़ों लोगों को चैन नहीं पड़ता। सुबह उसी से होती है और रात भी। मोबाइल पर दिन भर उंगलियां चलती रहती हैं और गूगल, फेसबुक, whatsapp को देखती रहती हैं। कोई भी चीज हो..उसके दो पहलू होते हैं..अच्छे या बुरे..ये हमारे ऊपर है कि हम उसकी अच्छाईयां ले लें..और बुराईयों को छोड़ दें। बाकी फिर......

Saturday, September 26, 2015

कामयाबी क्यों नहीं मिलेगी?

नोएडा के सेक्टर-122 में रहता है नौवीं क्लास में पढ़ने वाला हरेंद्र, स्कूल जाने के लिए 5 किमी चलता है। सुबह छह बजे स्कूल निकल जाता है। उसके बाद कंप्यूटर क्लास जाता है। पिता को पोलियो है..2013 में नौकरी छूट गई..बाद में फिर नौकरी मिल गई, मां बीमार रहती है। बड़ा भाई 17 साल का विवेक है और छोटा भाई सात साल का हिमांशु.

हरेंद्र को स्कूल से एक प्रोजेक्ट मिला..जिसे बनाने के लिए पैसे चाहिए थे..घर में इतने पैसे नहीं थे..माता-पिता बाहर गए थे, सोच में था क्या करें..तभी उसकी नजर घर में रखी वजन तौलने वाली मशीन पर पड़ी..मन में हौसला था..हौसले से दिमाग में आइडिया आया और उस वजन तौलने वाली मशीन को स्कूल बैग में लेकर नोएडा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन पर पहुंच गया। स्ट्रीट लाइट के नीचे मशीन रखी...खाली समय में पढ़ाई करता रहा और पहले ही रोज उसने दो रुपए के हिसाब से 60 रुपए कमाए। चार दिनों में उसे मिले दो सौ रुपए..इन रुपयों से उसने अपना प्रोजेक्ट पूरा किया.. इसी आइडिया और मेहनत से उसे नई राह मिल गई। अब वह हर रोज शाम सात बजे से रात नौ बजे तक दो घंटे मशीन लेकर बैठता है। साथ में पढ़ाई भी करता जाता है।क्लास में वो टाप तीन बच्चों में है।
सबसे पहले हरेंद्र की तस्वीर किसी ने फेसबुक पर पोस्ट की..और जब उसकी सारी कहानी सामने आई तो वाकई दिल को छू गई। ये बच्चा हम सबको को एक नई सीख दे गया। हम अक्सर कामयाब लोगों को देखते हैं..उनके लिए वाह-वाह करते हैं..उनसे सीख लेने की कोशिश करते हैं लेकिन उसके पीछे की हकीकत या मेहनत नहीं देखते। फेसबुक पर एक और इंटरव्यू देख रहा था..भाबी जी घर पर हैं सीरियल के हप्पू सिंह का..वो यूपी के हमीरपुर के रहने वाले हैं...उनका किरदार दिलचस्प है और सभी उनके अभिनय के कायल हैं..कुछ ऐसी ही कहानी उनसे भी जुड़ी है। मन में अभिनय का कीड़ा काट रहा था..लखनऊ में पढ़ाई करने के बाद मुंबई का रुख कर लिया। करीब दस साल की मेहनत के बाद अब वो प्रसिद्धि पा रहे हैं। काम के लिए कई प्रोडक्शन हाउस के धक्के खाए..हौसला और मेहनत आखिरकार रंग लाई।
ऐसे ही किस्से और भी हैं..हम चमत्कार को नमस्कार करते हैं..लेकिन उस चमत्कार के पीछे कितना लंबा संघर्ष होता है...परेशानी होती है..मेहनत होती है..जज्बा होता है..इसे हम नहीं देखते...किसी के भरोसे हम आगे नहीं बढ़ सकते..अगर जीवन में हमने मदद की दरकार की तो समझ लो हम कमजोर हो गए..हमारा खुद से भरोसा टूट गया..जो करना है..हमें ही करना है...सीख कर करना है..मेहनत से करना है..संघर्ष के साथ करना है..कामयाबी मिलेगी या नहीं..ये भी हमें ही तय करना है...बाकी फिर.....

Tuesday, September 22, 2015

भारत में भी कई होंगे सुंदर पिचाई और सत्या नडेला

प्रधानमंत्री जब-जब अमेरिका के दौरे पर जाते हैं..वहां रहने वाले भारतीयों की चर्चा शुरू हो जाती है। इस बार बात हो रही है, सिलिकान वैली की..जो तकनीकी कंपनियों का हब है। जहां आधे से ज्यादा भारतीय काम कर रहे हैं और उनमें गूगल के सुंदर पिचाई, माइक्रोसाफ्ट के सत्या नडेला से लेकर सुंदर नारायण, अपूर्व खोसला और तमाम दिग्गज लोग हैं। ऐसे लोग जिन्होंने पूरी दुनिया में अपनी धाक जमाई है। भारत के प्रधानमंत्री भी उनसे मिलने की इच्छा रखते हैं। देश चाहता है कि वो भारत की तरफ देखें..यहां निवेश करें..और भारत के विकास में भागीदार बनें।

ये तो हम सोच रहे हैं लेकिन हमने ये कभी नहीं सोचा कि आखिर भारत के खड़गपुर, रुड़की, दिल्ली, कानपुर, मुंबई की आईआईटी और अहमदाबाद आईआईएम से निकले ये छात्र विदेश क्यों चले गए?..क्या हमने ये कभी सोचा कि आखिर उन्होंने देश की धरती पर ही रहना क्यों पसंद नहीं किया..सबसे पहले बात आती है कि भारत में क्या उन्हें पैसा मिलता...क्या भारत में उन्हें इतना सम्मान मिलता..क्या भारत में उनकी सोच इतनी तेजी से आगे बढ़ती..क्या भारत में उनके काम की राह आसान होती..अगर नहीं..तो हम किसी को भी आमंत्रित कर ले..आमंत्रित करने के बाद वो यहां आ भी जाए..लेकिन जब माहौल नहीं मिलेगा..सम्मान नहीं होगा..तरक्की नहीं होगा..तो किसी का भी मोह भंग हो जाएगा।
हमारे देश के ही लोग उन्हें कोसते हैं कि वो विदेशों के लिए काम कर रहे हैं..वो हमारे नहीं हैं..वो पैसों के लिए काम कर रहे हैं लेकिन उनसे तो भले हैं जिन्होंने आईआईटी और आईआईएम तो छोड़..ग्रेज्युएशन भी ठीक से नहीं किया और आज देश में करोड़ों-अरबों के मालिक हैं..ईमानदारी से नहीं..बल्कि बेईमानी से...जब राजस्थान के आईएएस के यहां रिश्वत के चार करोड़ नगद मिलते हैं...जब एक पुलिस वाला लखनऊ में 20 रुपए की रिश्वत के लिए एक गरीब बुजुर्ग का टाइपराइटर तोड़ देता है..जब मध्यप्रदेश में आईएएस दंपत्ति के यहां दो सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति मिलती है..जब नोएडा में एक इंजीनियर के यहां सैकड़ों करोड़ों की अवैध संपत्ति जब्त होती है..तो हमें ताज्जुब नहीं होता क्योंकि हमें पता है कि पूरे देश में चाहे नेता हों या अफसर हों..या बिजनेस मैन हो..ज्यादातर अवैध कमाई से फल-फूल रहे हैं..और इतना फल-फूल रहे हैं कि उनका पेट दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। ऐसे में अगर गूगल के सुंदर पिचाई और माइक्रोसाफ्ट के सत्या नडेला विदेश जाकर पैसों के लिए काम करते हैं तो क्या गलत करते हैं।
हमने ये तो सोचा कि उन्होंने विदेशों की शरण ली..लेकिन ये नहीं सोचा कि क्या भारत में सिलिकान वैली नहीं बन सकती थी..बन सकती थी..यदि यहां वो माहौल होता..अनुशासन होता..कायदे-कानूनों का सही से पालन होता और ऐसे लोगों का सम्मान होता। हम प्रतिभा का सम्मान भी यहां तब करते हैं जब वो प्रसिद्धि पा लेता है..नहीं तो ऐसे न जाने कितने सुंदर पिचाई और सत्या नडेला अब भी भारत में होंगे...बाकी फिर.....

Monday, September 21, 2015

ये भेद तो हम खुद बनाते हैं...

हमारे पैतृक गांव में रिश्ते में एक अंकल हैं..वो अपने पिता के इकलौते बेटे हैं..उनके पिता भी इकलौते बेटे थे। उनके परिवार में ऐसा माना जाता रहा है कि एक ही बेटा होता है और वो ही वंश आगे बढ़ाता चलाता जाता था। जब अंकल की शादी हुई तो मैं बहुत छोटा था..शादी में मैं भी गया था। पिता ने धूमधाम से शादी की और शादी के बाद उन्हें एक ही चिंता सताने लगी कि एक बेटा हो जाए..ताकि वंश आगे बढ़ सके। पहला बच्चा आने की खुशी शुरू हुई..लेकिन जब बेटी हुई तो उनके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं...अगले साल ही फिर बच्चा आने की सुगबुगाहट हुई..इस बार फिर आशा बंधी कि अब बेटा होगा..लेकिन दूसरी भी बेटी हुई..तीसरी बार भी फिर बेटी हुई..तीन-तीन बेटियों को घर में देखकर उनका दिल कमजोर हो गया..और इसी चिंता में वो चल बसे..

अंकल भी नहीं माने और उनकी मां भी..करते-करते छह बेटियां हो गईं। आप समझ सकते हैं कि छह बेटियां हुईं हो उनके लालन-पालन का बोझ परिवार पर बढ़ने लगा। घर की खेती थी जिससे अनाज का खर्च चल जाता है..गांव में पैतृक घर था..इसलिए घर किराया नहीं लगता था..लेकिन बच्चियों की पढ़ाई.और शादी की चिंता में अंकल की हालत खराब हो गई। कचहरी में काम करने तहसील जाते थे..सौ-दौ रुपए रोज कमा लेते थे और फिर खेती-बाड़ी का सहारा था..लेकिन छह बच्चियों की पढ़ाई और लालन-पालन के लिए ये काफी नहीं था। हमारे पिता जी को ऐसे सारे लोगों की चिंता होती थी और अब भी होती है जो जीवन में इस तरह का संकट झेल रहे हैं। पिता जी अक्सर उनके बारे में बातें करते रहते हैं। अंकल जब भी घर आते..तो हमारे पिता जी उनसे बच्चियों का हाल-चाल पूछते और थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद कर देते।
अंकल का पूरा जीवन बेटियों को पढ़ाने और शादी की जद्दोजहद में चला गया..और आज भी चल रहा है। उन्हें मैंने कभी खुश नहीं देखा..सालों में जब भी किसी मौके पर टकराते हैं तो उन्हें देखकर हमारे चेहरे पर भी चिंता की लकीरें खिंच जाती हैं।
इस घटना का जिक्र इसलिए किया कि बेटी हो या बेटा..कोई फर्क नहीं पड़ता..कहते हैं कि पढ़े-लिखे लोग ये भेद नहीं करते..तो बता दें कि अंकल ने भी एमए किया था और कुछ वक्त सरकारी नौकरी भी की..लेकिन जब बूढ़े पिता और मां का बोझ..खेती-बाड़ी और एक-एक कर बच्चियों का पैदा होना..ये सब ने उनकी खुद की जिंदगी खत्म कर दी। एक तरफ वंश की चिंता में दुबले होते गए..तो दूसरी तरफ बच्चियों के बोझ तले..
आप कहेंगे कि बच्चियां बोझ नहीं होती..बच्चियां हो या बच्चे..जब इतने होंगे तो बोझ होंगे ही...जब हम बेटों को वंश चलाने वाला मानेंगे तो बेटियां बोझ होंगी हीं...किताबी पढ़े-लिखे होने का ये मतलब नहीं है कि आप शिक्षित हैं..शिक्षित होने का मतलब है कि आप और हम बेटे-बेटियों में भेद न करें..न बेटे भले होते हैं न बेटियां..न बेटे बुरे होते हैं..न बेटियां..ये भेद हम खुद बनाते हैं..या फिर वो बेटे-बेटियां बनाते हैं...बाकी फिर.....

कौन सही है, कौन गलत?

एक पुराना किस्सा है, मेरे एक मित्र हैं, अपने दफ्तर में अपने व्यवहार और कामकाज को लेकर खासे लोकप्रिय हैं। कभी किसी से झगड़ा नहीं होता..सारे लोग उनकी तारीफ करते हैं। सबके दुख-सुख..घर आना-जाना होता है। एक दिन बड़े दुखी थे, बोले एक अधीनस्थ सहयोगी उन्हें सपोर्ट नहीं कर रहा था, काफी समझाया-बुझाया..नहीं समझ में आ रहा था, किसी बात को लेकर एक दिन तकरार हो गई। तकरार बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन उस अधीनस्थ सहयोगी ने मेरे मित्र की शिकायत उच्च स्तर तक कर दी। मामला बड़ा हो गया..ऐसे-ऐसे गंभीर आरोप लगा दिए गए कि वे व्यथित हो गए..

इस शिकायत पर उनसे जवाब मांगा गया..शिकायत का जवाब लिखते गए..लिखते गए..लिखे जा रहे थे..जवाब खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था..सात पन्ने हो गए..इसके बाद भी जवाब जारी था..जिन साथी के सामने वे लिख रहे थे, उन्हें पढ़वाते भी जा रहे थे..जवाब देखकर वो मुस्कराए..बोले..इतना लिख दिया और कितना लिखोगे..ये जवाब ही बहुत लंबा हो गया...इसे और मत खींचो..पढ़ने के लिए भी तो सामने वाले को समय चाहिए..इस पर मित्र ने सात पन्नों में ही अपना जवाब खत्म कर दिया। उसकी आखिरी लाइन बड़ी खतरनाक थी..कि यदि इसमें लिखी एक बात भी गलत हो..तो मुझ पर सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए..और यदि सामने वाला गलत हो..तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए..ताकि कोई गलत शिकायत का शिकार न हो और उसकी छवि धूमिल न हो।
आपको जानकर हैरानी होगी कि इस शिकायत और उस जवाब का रिजल्ट क्या निकला..दोनों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.. न तो मेरे मित्र पर कार्रवाई हुई और न ही उन पर..जिन्होंने शिकायत की थी। जाहिर है कि शिकायतकर्ता मन ही मन खुश था कि उसने झूठी शिकायत करके मेरे मित्र की छवि धूमिल कर दी..और उसके बाद भी उस शख्स का हौसला बुलंद रहा। इससे मेरे मित्र काफी खिन्न दिखे।
ये घटना आज इसलिए याद आ गई..कि प्याज खरीदने और उसे बेचने के मामले में जब दिल्ली सरकार पर आरोप लगता है तो दिल्ली सरकार कहती है कि केंद्र ने महंगे में दिए..हमने सस्ते में बेचा..केंद्र सरकार कहती है कि हमने सस्ते में दिए..दिल्ली सरकार ने महंगा बेचा..जाहिर है कि एक कोई झूठ बोल रहा है...या तो दिल्ली सरकार या फिर केंद्र सरकार..इस खबर को आज तक चैनल ने दिखाया..तो उस पर दिल्ली सरकार ने उसके खिलाफ अखबारों में विज्ञापन छपवा दिया। अब इंतजार इसी बात का है कि कौन सही है..कौन गलत..ऐसा न हो कि मेरे मित्र जैसी घटना ये बनकर रह जाए...बाकी फिर.....

Saturday, September 19, 2015

इसे कहते हैं सोशल मीडिया

लखनऊ में एक बुजुर्ग कृष्ण कुमार..35 साल से पुराने से टाइपराइटर के जरिए सड़क किनारे बैठकर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे, पुलिस वाले उससे 20 रुपए रोज वहां बैठने के वसूलते थे..हो सकता है आपको ताज्जुब हो कि 20 रुपए की रिश्वत भी कोई लेता है..तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है..दो रुपए से लेकर 5 रुपए तक हर रोज की वसूली रिश्वत के रूप में होती है और जब सैकड़ों लोगों से हर रोज होती है तो ये छोटी सी रकम महीने में लाखों में पहुंचती है।

 उस रोज शायद उसका धंधा ही नहीं हुआ..धंधा भी कितना होता होगा..मुश्किल से हर रोज सौ रुपए..उसमें से 20 रुपए पुलिसवाले के..उस जगह बैठने के एवज में..जो शख्स हर रोज कमाता हो..और शाम को जाकर उसे दिन भर की कमाई से रोटी नसीब होती हो..वो बिना धंधे के 20 रुपए कैसे दे सकता था..बस क्या था..उसे बुजुर्ग की कमाई से क्या मतलब..उसे अपनी कमाई से मतलब था..वीवीआईपी सिक्योरिटी का हवाला दिया..और टाइपराइटर में लात मारनी शुरू कीं..दनादन लातों से उसका टाइपराइटर तहस-नहस कर दिया..ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर छा गईं। सरकार को लगा कि थू-थू हो रही है..एसएसपी ने जाकर उसे नया टाइपराइटर दिया और तस्वीर खिंचाई।
वाकई..ये है सोशल मीडिया का सदुपयोग..जिसने भी सोशल मीडिया पर इसे पोस्ट किया..जिन्होंने भी इसे शेयर किया..वो जानते हैं कि सोशल मीडिया का सही उपयोग क्या है..जब हम किसी की मदद करते हैं..किसी को दिशा देते हैं तो हम दूसरों को भी सीख देते हैं। हम अपने लिए तो हमेशा करते हैं. और खुद खुश होते हैं .लेकिन जब दूसरों के लिए करते हैं..और उनके चेहरे पर मुस्कराहट देखते हैं..तो खुशी दुगनी होती है।
हमारे-आपके लिए भले ही सौ रुपए कोई बड़ी बात न हो..लेकिन जिसकी हर रोज की कमाई सौ रुपए की हो..उसके लिए बहुत बड़ी बात होती है..उस सौ रुपए में ही दिन भर का खर्च चलाना..उसकी मजबूरी है...और अगर किसी दिन वो सौ रुपए भी न मिले..तो उसके जीवन में कितना कष्ट होता होगा..हम आप नहीं समझ सकते।
 जिसकी जितनी कमाई होती है..उसी हिसाब से हम अपना आकलन करते हैं..यदि हमें एक हजार रुपए रोज मिलते हैं..तो एक हजार का महत्व हमारे लिए उतना ही होता है जितना सौ रुपए हर रोज कमाने वाले को सौ रुपए का होता है। कोई बुजुर्ग फुटपाथ पर पुराने से टाइपराइटर लेकर दिन भर क्यों बैठता होगा..हम सोच सकते हैं..कि आखिर उसके लिए उस टाइपराइटर का क्या महत्व था..जिसके जरिए वो अपनी आजीविका जैसे-तैसे चलाता होगा..उस पर भी पुलिस वालों की नजर...ये तो एक बानगी थी..जिस पर किसी की नजर चली गई..उस भले आदमी ने सोशल मीडिया पर डाल दिया..नहीं तो ऐसी घटनाएं हर रोज होती हैं..हर जगह होती हैं...लेकिन किसी को परवाह नहीं। जब हम परवाह करते हैं..तो ऐसा असर होता है...बाकी फिर...

लूट सके तो लूट

बकरी का दूध एक हजार से दो हजार रुपए लीटर, ब्लड टेस्ट सौ रुपए से बढ़कर छह सौ रुपए, पपीते के छिलके, गिलोय, नारियल पानी बाजार से या तो गायब हो गए, या फिर उनकी कीमत इतनी बढ़ गई है कि आम आदमी बेहाल हो जाए, अस्पतालों की ये हालत हो गई कि भर्ती कराने के लिए लोगों को सिफारिश का सहारा लेना पड़ रहा, उसके बाद मुंह मांगी कीमत तो देनी ही है, हाथ-पैर भी जोड़ना है..आखिर जिंदगी का सवाल है। जो पीड़ित हैं, वो लुट रहे हैं, तन से भी..मन से भी धन से भी, इसके बाद भी उपाय नहीं सूझ रहा कि क्या करें क्या न करें।

मेडिकल स्टोर पर लोग पहले से ही डर के मारे दवा खरीदने पहुंच रहे हैं..एक भला मेडिकल स्टोर वाला समझाने लगा कि यदि दवा खाकर प्लेटलेटस बढ़ा लोगे तो घटाने के लिए भर्ती होना पड़ेगा। जिसको जो राय दे रहा है..उसी के पीछे भाग रहा है..कोई कह रहा है कि रामदेव की गोलियां खा लो..बचे रहोगे..लोग रामदेव के स्टोर पर चक्कर काट रहे हैं..रामदेव के किराना स्टोर पर किराने का सामान है..जहां वैद्य बैठते हैं वहां दवा मिलती है..लोग उनका पता तलाश रहे हैं...ऐसे में दवाओं का ब्लैक हो रहा है..और जो बचाव सामग्री है उसका भी।
ये तो हुई पीड़ितों की बात, जो इस मामले में दूसरी साइड हैं..उनकी निकल पड़ी है। कमाई का मौसम बहार लेकर आया है..डेंगू है कि मानता नहीं..और जितना लंबा खिचेगा..उतना फायदा है। वो ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि डेंगू कुछ महीने और चले..जितना कमा सकते हो..कमा लो..पता नहीं फिर डेंगू कब आएगा और कितना आएगा। डाक्टरों की कमाई तो हो रही है..साइड बिजनेस भी खूब चल रहे हैं। आखिर वो भी क्या करें..पापी पेट को पालना है तो कमाई करनी ही है..वो नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा। उसके हिस्से का दूसरा ले जाएगा।
जो ज्यादा कमाना चाहते हैं वो थोड़ा और डरा दे रहे हैं कि डेंगू का मामला है..सोचो मत..ये तो कम है..खैर मनाओ..इतने कम में काम हो रहा है..जिंदगी से तो बढ़ी कीमत नहीं...पैसा तो बाद में और कमा लोगे..मन ही मन कह रहे हैं..अभी हमें कमाने दो..
सरकार भी अपनी पीठ ठोक रही है..सब बढ़िया चल रहा है..सब भर्ती होंगे..कोई अतिरिक्त चार्ज नहीं लिया जाएगा, सब डाक्टर काम कर रहे हैं..सब पैरामेडिकल स्टाफ काम कर रहा है..वो तो मौसम का प्रकोप है इसलिए ज्यादा हो जाएगा..जैसे ही मौसम ठीक होगा..सब ठीक हो जाएगा..यानि हम मौसम के हवाले हैं..मौसम नहीं मानेगा तो कोई कुछ नहीं कर पाएगा..इनमें से कोई उन घरों में जाकर देखे जहां मौत पसरी हुई है..उनसे पूछकर देखे कि उन पर क्या बीत रही है..जब जो भुगतता है..वही जानता है..बाकी फिर... 

Thursday, September 17, 2015

कब किसको जाना है नहीं पता...

2005 की बात है, सुबह 4.30 बजे उठता था, उठते ही न्यूज शुरू हो जाती थी, छह बजे दफ्तर पहुंच जाता था और खबरों की दुनिया में पूरी तरह डूब जाता था, एक दिन सुबह सात बजे रिपोर्टरों और डेस्क के साथ फोन पर कान्फ्रेंस में था, दिन भर के कवरेज और खबरों की प्लानिंग हो रही थी, तभी घर से बड़े भाई का फोन आता है, मैंने सोचा कोई काम होगा, फोन काट दिया, सोचा कान्फ्रेंस के बाद बात कर लूंगा, एक-दो मिनट के बाद फिर फोन आया, एक फोन एक हाथ से पकड़े थे, दूसरे हाथ से मोबाइल उठाया, उधर से केवल रोने की आवाज सुनाई दी, फोन फिर कट गया।

ये वो क्षण था.जब मैंने महसूस किया कि एक क्षण में किसी भी आदमी का नशा कैसे हिरन होता है..चाहे वो नशा किसी भी चीज का हो..खबरों का ही क्यों न हो, साथ में बैठे साथी से मैंने कहा कि मैं कान्फ्रेंस से डिसकनेक्ट हो रहा हूं..और न्यूज रूम से बाहर जाकर मैंने छोटे भाई को फोन लगाया, उसने बताया कि मां नहीं रही, मैं समझ तो चुका था कि कुछ न कुछ गंभीर है लेकिन ये अंदाजा नहीं था, मां छोड़कर चली गई। वो भी इस तरह कि जैसे अचानक उनके जाने का मन हुआ हो, ब्लड प्रेशर था, कई सालों से..दवा खाती थीं, ठीक हो जाता था, एक हफ्ते पहले बीमार हुईं, बुखार आया, शहर के अच्छे डाक्टर घर आकर इलाज कर रहे थे, बुखार ठीक हो गया था, कमजोरी थी, तीन दिन पहले मेरी बात हुई थी, बोलीं..अब ठीक है, रात को उन्होंने मेरी बहन से बात की..एक-दूसरे के हाल-चाल लिए..थोड़ा सा भोजन भी किया..सुबह छह बजे बड़े भाई उनके पास ये देखने गए कि मां उठी या नहीं, कैसे हाल-चाल हैं..देखा कि वो निढाल थीं. डाक्टर को बुलाया, उनकी समझ में नहीं आया, बोले रात में तो बिलकुल ठीक थीं, जिस तरह वो गईं, उनके हिसाब से ब्लड प्रेशर हाई से लो हुआ, और संभव है कि इस वजह से वो शांत हो गईं।
इसके बाद एक और घटना से रुबरू हुआ, नामी पत्रकार थे, हंसमुख, बिंदास, स्मार्ट, मनमौजी, जब भी मिलते, हंसी-मजाक शुरू कर देते, कोई भी हो, चाहे छोटा या बड़ा, जिंदादिल, उस रोज शाम को आफिस की एक समारोह के लिए निकल रहे थे, जाने के पहले उनकी शानदार ड्रेस पर चर्चा हुई, अगली सुबह पता चला कि समारोह से देर रात लौटते वक्त एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल हो गए हैं, कई दिन तक जिंदगी से लड़ते रहे, आखिरकार हार गए।
तीसरी घटना..एक और साथी , दफ्तर से बाइक से निकले, घर नहीं पहुंच पाए, हादसे से कोमा में चले गए, फिर दम तोड़ दिया।
ऐसी कई घटनाएं और हैं, जो जिंदगी की हकीकत का एहसास कराती हैं। हम आए हैं तो जाना भी है.... कब, किसी को नहीं पता, कैसे जाना है, किसी को नहीं पता, मौत को हम तय नहीं कर सकते..बस ईश्वर ने ये तय किया है कि जब तक हो, जुटे रहो,कोशिश करो कि अच्छा सोचो, अच्छा देखो अच्छा सुनो, अच्छा करो....बाकी फिर....

Wednesday, September 16, 2015

पहले भगवान को कुछ दीजिए...

ईश्वर से हम यूं हर रोज कुछ न कुछ मांगते हैं...कभी सुख..कभी शांति..कभी समृद्धि..कभी धन..कभी सेहत..कभी बच्चे का कैरियर..कभी नौकरी में तरक्की..सबकी अपनी-अपनी जरूरतें हैं..इच्छाएं हैं..इसलिए ये क्रम कभी जीवन भर रुकता नहीं..चाहे राजा हो या रंक..सब मांगते हैं..टाटा-बिड़ला..अंबानी सब मांगते हैं। चाहे कोई कितनी ही ऊंचाई पर हो..वो और मांगते हैं। हमेशा हम मानते हैं कि हमारे पास कम है..हमें और ज्यादा चाहिए। जैसे पेड़ एक ऊंचाई तक जाता है..जब तक उसकी क्षमता होती है वो ऊंचा होता जाता है और जब ऊंचाई रुक जाती है तो वो शाखाओं में फैलने लगता है..और चारों और फैलता जाता है..ऐसा ही हमारा जीवन है..हम लगातार तरक्की चाहते हैं..जब तरक्की रुक जाती है तो हम चिंतित होने लगते हैं..कुछ मन ही मन सोचते हैं...कुछ गुस्सा और चिड़चिड़ाहट में उजागर करने लगते हैं और ईश्वर से कहते हैं कि वो हमारी क्यों नहीं सुन रहे।

ईश्वर हमारी क्यों नहीं सुनते..वो इसलिए नहीं सुनते..क्योंकि कमी हममें ही होती है। हम कभी अपने मन में नहीं झांकते..सिर्फ ईश्वर के पास फरियाद लेकर पहुंच जाते हैं कि हमारा जीवन सुधार दें..आपको हमें लगता है कि ईश्वर केवल इसीलिए बैठे हैं कि वो आपके आवेदन लेते जाएं..और उस पर अमल करते जाएं। ऐसे में ईश्वर को हम अपने से नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं..मानो वो हमारी अपील पर अमल करने के लिए ही बैठे हैं। दरअसल कितनी ही पूजा करें हम..कितनी ही मन्नतें मानें हम..पूरी जब ही होती हैं जब हम उसके लिए कमर कसते हैं..जब हम कुछ आगे बढ़ते हैं..कुछ सोच पैदा करते हैं..कुछ विचार पैदा करते हैं..कुछ मेहनत करते हैं..और कुछ संघर्ष करते हैं..तो ईश्वर जरूर उस आवेदन पर विचार करते हैं। कोई बच्चा चाहे..साल भर पढ़ाई न करे..और हर रोज पूजा-पाठ कर अव्वल आने की मनोकामना करे तो आप जानते हैं कि रिजल्ट में उसका क्या हश्र होगा। हम चाहें कि मन ही मन कुछ भी सोचे..और ईश्वर के पास जाकर उसे पूरा करने की मन्नत मांगें तो क्या वो पूरी हो जाएगी।
हम चाहें कि एक दिन और एक रात में चमत्कार हो जाए तो ये मुमकिन नहीं...एक दिन में न तो पूजा पूरी होती है..न ही सोच पैदा होती है..न ही विचार बनते हैं..न ही एक दिन में मेहनत और संघर्ष पूरा हो जाता है..ये प्रक्रिया जीवन भर चलती है..जब ये प्रक्रिया लगातार चलती है तो हमारी मनोकामनाएं भी पूरी होने लगती हैं..और ये मनोकामनाएं जीवन भर पूरी होंगी..जब हम लगातार चलते जाएंगे..मेहनत करते जाएंगे..जब हम थक जाएंगे..रुक जाएंगे..या मनोकामनाएं भी रुक जाएंगी। गिव एंड टेक..न प्यार एक तरफा होता है न ही पूजा..जब आप भगवान को कुछ देते हैं वो हमें उससे ज्यादा रिटर्न करते हैं। जैसे आप बैंक में अपनी बचत जमा करते हैं तो उस पर ब्याज मिलता है..उसी तरफ भगवान को हम जितना देंगे..वो हमें मय ब्याज के रिटर्न करेंगे लेकिन यहां बात पैसे की नहीं हो रही..कि आप सौ रुपए चढ़ाएं तो वो आपको एक सौ दस वापस करेंगे। यहां बात हो रही हमारे काम की..मेहनत की..सोच की..व्यवहार की..इसलिए भगवान से तभी मांगिए..जब आप उन्हें कुछ देने की स्थिति में हों..पैसा छोड़कर...बाकी फिर....

Tuesday, September 15, 2015

एक मच्छर सबको हिजड़ा बना देता है...

मौत घूम रही है..चारों तरफ..मेरी बेटी के स्कूल में भाई-बहन पढ़ते हैं..राखी के पहले एक भाई को डेंगू ने लील लिया। बहन अकेली रह गई। दिल्ली में एक बच्चे को डेंगू ने छीना और मां-बाप ने खुदकुशी कर ली। हर रोज अखबारों के पन्ने भरे पड़े हैं..दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा..कोई जगह ऐसी नहीं बची है जहां डेंगू का डंक न डस रहा हो। प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री..स्वास्थ्य मंत्री तक लगता कुछ करने की हालत में नहीं। ये देश है वीर जवानों का..जो करना है खुद करना है..न सरकार को करना है..न नेता को करना है। राजधानी का कौन सा स्कूल और सरकारी अस्पताल है जहां..स्वास्थ्य के सारे मापदंडों का पालन हो रहा हो। सबको पता है..आप और हमें पता है तो सरकार को क्यों पता नहीं होता।



बाजार से डेंगू से बचाव की सारी सामग्री गायब है। नारियल पानी बेचने वाला खुश है..पपीता बेचने वाला खुश है..उसकी बिक्री बढ़ गई है..मेडिकल स्टोर वाले भी खुश है..डाक्टर भी खुश हैं..ये लोग तो फिर भी ठीक है..खून तक बिक रहा है..तो फिर नारियल पानी वाले का क्या दोष..धंधे का मौसम है मतलब उनका मौसम है। जितना बेच पाओ..बेच लो..इतना बेच लो कि सारे साल की कमाई निकल आए..नेता सोकर उठते हैं और सोने के पहले बयान देते हैं..उन्हें भी एक मुद्दा है..वो भी बयान देने में कोई कंजूसी नहीं बरत रहे..डेंगू से बचना है..सरकार ध्यान नहीं दे रही है..अस्पतालों में इंतजाम नहीं है। जिनकी जवाबदेही है..उनके अपने बयान है..लगातार निरीक्षण किया जा रहा है..दवाईयां मंगाई जा रही है। अस्पताल में बिस्तरों के इंतजाम किए जा रहे हैं..सबको भर्ती किया जा रहा है..लेकिन मौतों को कोई रोक नहीं पा रहा।
क्योंकि एक मच्छर है जो सबको हिजड़ा बना देता है। पूरे देश को बना देता है। कितने ही बड़े वैज्ञानिक हों..डाक्टर हों..सरकार को हों..नेता हों..सब उसके आगे हारे हैं..किसी की ताकत नहीं। एम्स के डाक्टर बता रहे हैं कि इस बार कुछ अलग टाइप के डेंगू की आशंका है। आयुर्वेद वाले अपना प्रचार करने में जुटे हैं..डाक्टर कहते हैं कि हां..इन सब चीजों से आराम तो मिलता है पर कोई पक्की रिसर्च नहीं है। परखा हुआ नहीं है।
ये हमारी तरक्की की जीती जागती मिसाल है जब एक मच्छर मौत पर मौत का तांडव खेल रहा है..वो अपनी जनसंख्या बढ़ा रहा है..हम आदमियों की जनसंख्या भले ही रोक लें..लेकिन उनकी नहीं रोक सकते।

दरअसल जिस पर गुजरती है वही दर्द को जानता है..बाकी को क्या मतलब है..जब हम पर गुजरेगी..तब हम भुगत लेंगे। हर रोज सैकड़ों मरते हैं..एक्सीडेंट से मरते हैं..बीमारी से मरते हैं..अपनी मौत मरते हैं..मरने दो..हां कोई सेलिब्रिटी मरे.तो उस पर ध्यान दें..बाकी जान की क्या बिसात है..वो तो मरने के लिए ही है...करोड़ों की जनसंख्या में हजारों मर भी गए तो क्या फर्क पड़ रहा है..इसलिए जब किसी पर आपबीती हो..तभी बोलना है..दूसरे जाएं भाड़ में...मरे या जीएं..हमें कोई दिक्कत नहीं...मच्छर ये बात अच्छी तरह से जानता है कि हमारे आगे सब हिजड़े हैं। बाकी फिर.......

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Monday, September 14, 2015

चिट्ठी आई है....

एक पत्र हिंदी के नाम,
प्रिय हिंदी ये पत्र आपको लिख रहा हूं..और कर भी क्या सकता हूं.कोई प्रधानमंत्री को लिख रहा है.कोई सोशल मीडिया पर आपकी याद में आंसू बहा रहा है..कोई चिंता जता रहा है.इसलिए सोचा मैं आपको ही याद कर लेता हूं। आप अब एक दिवस के रूप में ही याद की जाने लगी है..चलो.कम से कम इतनी शर्म हममें है कि एक दिन तो आपके लिए रखा है। मैं तो आपको ही लिखता हूं..लिखता था और लिखता रहूंगा..लेकिन उसमें भी इतनी गिरावट आ गई कि बता नहीं सकता। अब लिखते वक्त आधे से ज्यादा शब्द तो अंग्रेजी ने हथिया लिए हैं..उर्दू भी हथिया चुकी है..और सही बताऊं तो पता ही नहीं चलता कि हम कितने शब्द हिंदी के लिख रहे हैं। हमने आपका विकल्प रोमन में लिखने का भी तलाश लिया है। इसके बावजूद जो हिंदी में लिख रहे हैं वो कम से कम आपको हर दिन लिखने के बहाने याद तो कर लेते हैं लेकिन आजकल के बच्चों का मोह भंग हो चुका है..या मोह भंग हमने कर दिया है। अब सौ में दस बच्चे भी हिंदी माध्यम में नहीं पढ़ते..भले ही कितने गरीब हों पर पहली प्राथमिकता अंग्रेजी की है..कहा जा सकता है कि आपकी हालत गरीबी से भी नीचे जा चुकी है।

उच्च वर्ग तो आपको बिलकुल पसंद नहीं करता..जो आपकी भाषा में बात करता है..उसका मजाक उड़ाया जाता है..उसे बिना पढ़ा-लिखा बताया जाता है और असभ्य करार दिया जाता है..गरीबी के बाद आपको असभ्यता का दर्जा भी मिलने लगा है। अंग्रेजी माध्यम के लोग उच्च कहलाते हैं और हम हिंदी वाले निम्न।
दिनोंदिन आपका जनाधार घटता जा रहा है और हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए..जब आपको एक दिन भी याद न किया जाए..क्योंकि नई पीढ़ी तो पहली कक्षा से अंग्रेजी में ही पढ़ रही है..लिख रही है और बोल रही है..कुछ पुरानी पीढ़ी के लोग हैं जो कम अंग्रेजी पढ़े हैं वो घर में हिंदी बोलते हैं तो बच्चे भी टूटी-फूटी सीख जाते हैं..एक दिन ऐसा जरूर आएगा..जब हमारी पीढ़ी खत्म हो जाएगी और अंग्रेजी वाली पीढ़ी ही इस धरती पर बचेगी..तब शायद आप भी हमारे साथ इस धरती से विदा हो जाओ। 
भले ही आप कहो कि आपमें कोई बुराई नहीं..लिखी हुई अच्छी लगती है..बोलने में तो और भी मीठी लगती हो..सुनने में कर्ण प्रिय हो..पर मुश्किल ये है कि दुनिया अब छोटी हो गई है और अब भारत दुनिया को अपने में आत्मसात करने लगा है इसलिए खुद का चोला त्याग रहा है..दूसरों की खाल पहन रहा है ताकि वो भी दूसरे देशों जैसा दिखने लगे..ये बात अलग है कि चीन हो या अमेरिका..या जापान..उन्होंने शक्ति बनने के लिए अपनी भाषा नहीं त्यागी..लेकिन हमारी मजबूरी है क्योंकि हम नेता नहीं हैं..कार्यकर्ता हैं..हां कुर्ता-पाजामा पहनकर दुनिया को नेता बनने के लिए मना रहे हैं..इसलिए आपको त्याग कर हम पिछड़ेपन की निशानी हटाना चाहते हैं क्योंकि दुनिया का कहना है कि अंग्रेजी के बिना तरक्की नहीं..क्योंकि वो तरक्की पर हैं इसलिए हम भी चाहते हैं कि आपको त्याग कर शायद तरक्की पा लें...इसलिए आपको जाना होगा...हां ये बात अलग है कि यदि तरक्की न  पाए और फिर भी खो दिया..तो आपको कितना दुख होगा..इसकी किसी को चिंता नहीं है। बाकी फिर...

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Saturday, September 12, 2015

डेंगू का डंक कब तक डसता रहेगा?

दिल्ली का लाडो सराय इलाका...उड़ीसा में केंद्रपाड़ा के रहने वाले लक्ष्मीचंद्र..पत्नी बबीता और सात साल का बेटा अविनाश..जिसे प्यार से घर में बिट्टू बुलाते थे। लक्ष्मीचंद्र गुड़गांव की एक प्राइवेट कंपनी में सीनियर पोस्ट पर थे..हंसी-खुशी जिंदगी कट रही थी..अचानक बिट्टू को बुखार आया..पास के एक क्लीनिक में इलाज कराया...जांच में पता चला कि बच्चे को डेंगू है। बच्चे की तबियत जब ज्यादा बिगड़ने लगी तो उन्होंने साकेत के मैक्स अस्पताल..लाजपत नगर के मूलचंद अस्पताल...कालका जी के इरीन अस्पताल..मालवीय नगर के आकाश अस्पताल और साकेत सिटी अस्पताल के चक्कर काटे..लेकिन सभी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों की भीड़ के कारण भर्ती नहीं किया गया। आखिरकार बत्रा अस्पताल में उसे भर्ती कराया गया और अगले दिन ही उसकी मौत हो गई। एक बच्चा..और उसकी भी मौत हो जाए..तो माता-पिता के जीवन में कितना दुख होगा..कहने की जरूरत नहीं।

बच्चे को छतरपुर के श्मशान घाट में दफनाने पहुंचे..पिता लक्ष्मीचंद्र ने फावड़े से खुदाई की और उड़ीसा के रीति-रिवाज के हिसाब से पिता ने बच्चे के दाएं हाथ की उंगली को उसके मुंह में लगाया और बेटे से धीरे से कान में कहा-बेटा बिट्टू..मम्मी इंतजार कर रही हैं..जल्दी आना। रिश्तेदार के मुताबिक..ऐसी मान्यता है कि मां के कोख में वही बच्चा जन्म लेता है। बेटे की मौत से मां टूट गई..बेहोशी की हालत थी..रात 12 बजे तय हुआ कि उड़ीसा चले जाएंगे..लेकिन पत्नी का आईकार्ड न मिलने से बुकिंग नहीं हुई। रात को पत्नी के पिता ने लक्ष्मीचंद को दिलासा दिया लेकिन लक्ष्मीचंद्र ने कहा कि उन्हें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दें..और यही गलती भारी पड़ गई। दोनों एक कमरे में बंद हो गए। रात एक बजे दोनों चुपचाप कमरे से निकले..फ्लैट के बाहर की कुंडी लगा दी..सुबह जब लोग उठे तो देखा कि कमरे में दोनों नहीं है..बाहर से कुंडी बंद है। मोबाइल से पड़ोसियों को बुलाया गया। परिवार..रिश्तेदार श्मशान घाट पहुंचे कि कहीं दोनों वहां तो नहीं है..लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि फ्लैट के पीछे छत से कूदकर दोनों जान दे चुके थे। कमरे में सुसाइड नोट रखा हुआ था।

ये है भारत की असल तस्वीर..देश की राजधानी..जहां डेंगू का इलाज संभव नहीं..डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया..बुलेट ट्रैन..स्मार्ट सिटी और न जाने हम क्या-क्या सोच रहे हैं। हम ये सोच नहीं पा रहे कि देश की राजधानी में इलाज की ये हालत...जहां प्राइवेट अस्पतालों में भी बच्चों को भर्ती कराने का इंतजाम नहीं..सरकारी अस्पतालों की तो बात करना ही बेकार है। अब पांच अस्पतालों को नोटिस जारी हुए हैं..जांच हो रही है..जैसा हर केस में होता है..लेकिन एक मासूम की जान गई और उसके माता-पिता की भी...अगर बच्चे का सही से इलाज हो जाता है तो शायद तीनों जानें बच जातीं। राजनीति पर तो हम बहुत चर्चा करते हैं..इस दुखद हालात पर हम चर्चा क्यों नहीं कर पाते..इसलिए नहीं करते क्योंकि इससे हमारा सीधा सरोकार नहीं..इसमें हमारा कोई फायदा नहीं...उड़ीसा के इस परिवार से हमारा कोई लेना-देना नहीं..लेकिन जब किसी पर गुजरती है तो वो समझता है कि ये भयावह स्थिति आज भी बनी हुई है। क्यों बनी हुई है.इसका जवाब किसी के पास नहीं..बाकी फिर.....

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Friday, September 11, 2015

हिंदी चिंदी-चिंदी

भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर लोगों को उतनी चिंता नहीं थी..जितनी बिग बी के आने को लेकर थी और हिंदी पर बोलने को लेकर थी...क्या अमिताभ बच्चन हिंदी के मर्मज्ञ हैं..या उनके पिता जी थे..इस तरह के सवाल साहित्य जगत ने उठाए..मीडिया ने उठाए...उधर भोपाल जितना हिंदी को लेकर उत्सुक नहीं था..उतना बिग बी लेकर था..और जब ये खबर आई कि बिग बी नहीं आएंगे तो लोग मायूस हो गए..मीडिया भी मायूस हो गया कि हिंदी खत्म हो या न हो...ग्लैमर जरूर खत्म हो गया...बहस का अच्छा खासा मुद्दा खत्म हो गया..उनके आने की खबर से बढ़िया मुद्दा तैयार हो गया था..इस पर कई घंटों की बहस की सामग्री तैयार हो गई थी..अब लोग ये कह रहे हैं..कि दांतों की समस्या को लेकर अमिताभ बच्चन ने हिंदी को त्याग दिया..उन्हें दांत दर्द को छोड़कर हिंदी के लिए जरूर आना चाहिए था। कुछ पत्रकार खुश हैं कि उन्हें हिंदी सम्मेलन में बुलाया गया..साहित्यकार खुश हैं..दनादन सेल्फी डाल रहे हैं...जिन्हें नहीं बुलाया गया..वो नाराज हैं..कोस रहे हैं...और कह रहे हैं कि वो तो खुद ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं होना चाहते..

सवाल कई हैं..जिस देश में बच्चा पैदा होते ही हिंदी बोलता हो..उस देश में हिंदी को बचाने के लिए..उसे समृद्ध करने के लिए..उसे सरंक्षित करने के लिए..उसके प्रचार-प्रसार के लिए..जब हिंदी दिवस मनाया जाने लगे..जब सम्मेलन किए जाएं..जब कार्यशालाएं हों..जब प्रचार-प्रसार समिति बनाईं जाएं...जब हिंदी अधिकारी रखे जाएं..तब समझ लो...कि हिंदी चिंदी-चिंदी हो गई है। जैसे कोई मां अपने बेटे को बचाने के लिए प्रार्थना करती है..गुहार लगाती है..डाक्टर के पास जाती है...कुछ ऐसा ही आज हिंदी के साथ हो रहा है। जैसे हम रोज भोजन करते हैं...कपड़े पहनते हैं...सोते हैं..दैनिक क्रियाएं करते हैं..वैसे ही हिंदी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। भारत की अदालत में हिंदी नहीं चलती...कई सरकारी कार्यालयों में हिंदी में काम नहीं होता..कई आवेदन हिंदी में नहीं भरे जाते..कंप्यूटर पर बहुत सारे काम हिंदी में नहीं हो सकते। ये धारणा..ये परंपराएं..या अनिवार्यता बना दी गई..लेकिन जब मौका पड़ता है..जब माहौल बनता है तो मोबाइल में भी हिंदी भाषा आ जाती है...कंप्यूटर पर भी हिंदी में काम होने लगता है..और कंपनियां भी हिंदी में काम करने का अवसर देने लगती हैं।
इसके बावजूद  हिंदी को हमने ही जिस उपेक्षा का..जिस हीन भावना का..दूसरे दर्जे का..शिकार बना दिया और अब उसे बचाने के लिए कोशिश कर रहे हैं..उसे समृद्ध करने की बात कर रहे हैं। जैसे कोई बेटा..अपनी मां को धक्के मारकर बाहर निकाल दे..और बाद में उसे शर्म आए..या फिर समाज का लोकलाज लगे तो कहें कि नहीं मां के साथ गलत हुआ है..मां को बचाना है..मां को संरक्षित करना है..मां को समृद्ध करना है।
सोशल मीडिया पर हिंदी को लेकर जितनी बहस चल रही है..मीडिया में जितने चर्चे हो रहे हैं..उनमें फोकस इस बात पर है कि कौन आ रहा है..क्यों आ रहा है..किसको बुलाया..किसको नहीं बुलाया..और हिंदी की चिंदी किस तरह हो रही है इसके लिए हिंदी सम्मेलन के आसपास लगे अंग्रेजी के पोस्टर...सम्मेलन स्थल पर गलत लिखी हिंदी की तस्वीरें चस्पां हैं। अच्छा ये होता है कि एक हिंदी की प्रतियोगिता रख ली जाती..जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सभी से हिंदी भाषा पर एक निबंध लिखवा लेते...और फिर तय करते..कि कितने लोग हैं जिन्हें हिंदी आती है या नहीं...बचपन से हिंदी में पढ़ रहा हूं..लिख रहा हूं...पर मैं सच्चाई के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं हिंदी का मर्मज्ञ नहीं..मैं ये दावा नहीं कर सकता कि मुझे हिंदी सही से लिखनी आती है। हां..हिंदी शुरू से लिखने-पढ़ने-बोलने की कोशिश जरूर कर रहा हूं और आज भी जब किसी शब्द पर अटकता हूं तो दूसरों से पूछ लेता हूं कि ये सही हिंदी है या नहीं..ये तो मेरा हाल है जब मुझे इस भाषा में काम करते-करते 45 साल हो गए..और तो और हिंदी के शब्द कम बचे हैं..उसमें हम उर्दू..फारसी और अंग्रेजी के इतने शब्द शामिल कर चुके हैं..कि आने वाले दिनों में वैसे ही कुछ प्रतिशत ही शब्द हिंदी के बच पाएंगे...अब तो आने वाली पीढ़ी पूछती है कि 7 को हिंदी में कितना बोलते हैं...बाकी फिर......

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Thursday, September 10, 2015

खेल-खेल में....

गुड़गांव की चार साल की ऋतिका को कार में खेलने का बड़ा शौक था..आटोमेटिक लाक का बटन दबाकर कार को खोलना और बंद करने में बड़ा मजा आता था। स्कूल से लौटने के बाद उसने कार की चाबी उठाई और अपनी छोटी बहन हिमांशी के साथ कार के पास खेलने को निकल गई...कार को खोला..दोनों अंदर बैठ गईं और फिर कार को लाक किया..लेकिन जब अनलाक किया तो कार के दरवाजे नहीं खुले...तेज धूप में खड़ी कार में दम घुटने से कुछ ही देर में बेहोश हो गईं। घरवालों को जब दोनों काफी देर तक नजर नहीं आईं तो तलाश शुरू हुई और दो घंटे बाद उन्हें कार में दोनों मिलीं। बेहोशी की हालत में दोनों बहनों को अस्पताल ले जाया गया..लेकिन बच नहीं सकीं।

ये पहला हादसा नहीं है..घर की पानी की टंकी में छिपने के चक्कर में बच्चे भीतर घुस जाते हैं..और ढक्कन बंद होने के बाद जब नहीं खुलता..तो उनकी मौत हो जाती है। बोरवेल के किस्से तो टीवी चैनलों पर कई बार चल चुके हैं। यही नहीं...कार में बच्चों को अकेले छोड़कर जाना तो आम बात है..एक सज्जन तो सड़क पर कार खड़ी कर गए..बच्चा अंदर छोड़ गए..और ट्रैफिक पुलिस उस कार को उठा ले गई..जब पता चला कि तो हैरान-परेशान होकर भागे...एक और घटना ऐसी ही है..बच्चे चोर-सिपाही खेल रहे थे...एक बच्चा ऊपर स्टोर रूम में बंद हो गया..सटकनी लगा तो ली..लेकिन खोल नहीं पाया...कई घंटों बाद पता चला..उसकी मौत हो चुकी थी।कई बच्चे घर के बाहर खेलते-खेलते गायब हो गए। ऐसी कई घटनाएं हम रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते रहते हैं..देखते रहते हैं...जरूरत है सबक लेने की..

कई बार माता-पिता सोचते हैं कि बच्चों पर लगातार नजर रखो..उन्हें अपने हिसाब से चलाओ..जब माता-पिता चाहें..वो पढ़ाई करें..जब चाहें..खेलने के लिए भेजें..जो खिलाना चाहते हैं..वही खिलाएं..लेकिन ऐसा नहीं होता..बच्चों का अपना मन होता है..न आपसे हमसे कोई जबर्दस्ती कर सकता है और न ही बच्चों से...उन पर चौबीस घंटे नजर रखना भी ठीक नहीं..लेकिन इसके साथ ही ऐसी लापरवाही भी नहीं करनी चाहिए..जैसी ऊपर दी घटनाओं में हुई। माता-पिता नौकरी पर गए हैं..बच्चे या तो मेड के सहारे हैं या फिर दादा-दादी के सहारे..और वो भी कितना ध्यान दे सकते हैं...उनकी अपनी मजबूरियां हैं..काम हैं..आराम करना है..इन सबके बीच जब बच्चों को यूं ही छोड़ देते हैं तो ऐसे गंभीर नतीजे सामने आते हैं। उन्हें अपने मन की करने दें..लेकिन जहां जरूरी है..जहां खतरा है..वहां उन पर नजर जरूर रखें...खासकर घर से बाहर जाते वक्त..और जब बच्चे काफी देर तक आपकी नजरों से ओझल हैं तो हमें सावधानी बरतने की जरूरत है। वो कहीं कोई मुश्किल में फंस सकते हैं। छोटे बच्चे जो भी कर रहे हैं..उन्हें आप आगे बढ़ाना चाहते हैं..जरूर बढ़ाएं..लेकिन अपनी निगरानी में...बाकी फिर......

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एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है!

अंधेर नगरी चौपट राजा

एक राजा था, जिसे अपनी प्रजा से कोई मतलब नहीं था, अपने में मस्त रहता था, सुरा-सुंदरी में मग्न, भोग विलासिता के अलावा उसे किसी से मतलब नहीं...उसके राज्य में कोई भी संकट आए..कोई भी समस्या आए...कोई मतलब नहीं..अपने मंत्री से कह देता..वो अपने हिसाब से देख ले..बस उसके मनोरंजन का इंतजाम में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए...24 घंटे बस मनोरंजन या कहें अय्याशी में डूबे रहना....

नतीजा क्या निकला...राज्य की हालत बिगड़ती गई..उसके मंत्री और बाकी सर्वेसर्वा भी मौका देखकर लूट में लग गए...लूट-खसोट का आलम ये हुआ..कि राज्य में अराजकता फैल गई..और राजा के खिलाफ बगावत हो गई..फिर भी राजा गंभीर नहीं हुआ..उसे लगा कि जितना वक्त मिला है बस भोग करते जाओ...आखिरकार उस राजा का अंत हो गया..दूसरे राज्य का कब्जा हो गया..जो उसके कारिंदे थे..वो उससे ऊपर आ गए..राजा जेल में डाल दिया गया..और सड़-सड़ कर मर गया।
ये कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि कहा जाता है जैसा राजा..वैसी प्रजा...यही बात किसी संस्थान के लिए लागू होता है..किसी परिवार के लिए लागू होता है। जहां हम समूह में काम करते हैं तो उसका मुखिया तय करता है कि उस संस्थान या परिवार को कैसे चलाना है। उनके क्या कायदे-कानून होंगे..क्या अनुशासन होगा..क्या मेहनत होगी..क्या पारिश्रमिक होगा..क्या परंपराएं होंगी..एक पूरा ढांचा तैयार होता है। जाहिर है जैसा मुखिया होता है..वैसा ही वो अपने दाएं और बाएं चुनता है। उसके बाद जो उप प्रमुख होते हैं..वो भी उसकी ही छवि लेकर चलते हैं...उसके पालन में आगे काम करते हैं..फ्रंट में रहते हैं। जो दाएं-बाएं होते हैं वो अपनी उंगलियां भी वैसी ही बनाते हैं..यानि उनके साथ जो कर्मचारी काम कर रहे हैं..वो चाहते हैं कि उनके साथी उन्हें फालो करते हैं..उन्ही के हिसाब से ढल जाए...ये क्रम ऊपर से नीचे चलता है।
फिर इस क्रम में एक तालमेल होता है और संतुलन होता है..सुख-दुख होता है..अच्छा-बुरा होता है...गलत और सही होता है..लेकिन जब पूरा फ्रेम वर्क बनता है तो वो कंपलीट होता है..एक सुंदर तस्वीर सामने आती है..लेकिन जहां इमारत में एक धब्बा होता है तो पूरी की पूरी इमारत बेकार हो जाती है...हर आदमी इमारत के उस धब्बे पर नजर डालता है..उसकी खूबसूरती पर नहीं...यही हाल संस्थान का होता है कि यदि पूरा तालाब अच्छा है लेकिन एक मछली तालाब को गंदा कर रही है तो तालाब का अस्तित्व बिगड़ जाता है..वो तालाब उस एक मछली की वजह से गंदा ही कहलाता है। अगर ये सोचकर हम उसे छोड़ देते हैं कि पूरे तालाब में सैकड़ों लोग है..अगर एक मछली कुछ गंदा भी कर रही है तो क्या हुआ? वहीं हम सबसे बड़ी गलती कर बैठते हैं...अगर आपके संस्थान का एक सदस्य खराब है..या फिर आपके परिवार का एक शख्स खराब है तो पूरी छवि बिगड़ जाती हैं और बाकी की सारी मेहनत खराब हो जाती है। जब हम उस सदस्य को लेकर चुप बैठते हैं..उसे यूं ही कह कर छोड़ देते हैं तो वही आपके विनाश का कारण बन जाता है..आपके विनाश से मतलब उस परिवार में जितने लोग हैं..या फिर उस संस्थान में जितने लोग है..उनके पतन की शुरूआत वहीं से होती है..और एक से ज्यादा हैं तो फिर धराशायी होने में उतना ही कम वक्त लगता है। ऐसे तमाम ग्रुप हैं..तमाम संस्थान हैं..तमाम परिवार हैं जिन्हें धराशायी होते देखा है..किसी दूसरे के कारण नहीं..उसके मुखिया के कारण..या तालाब में उन गंदी मछलियों के कारण...तो जीवन दर्शन यही कहता है कि ऐसे तत्वों को चुपचाप सहन न करें..उन्हें यूं ही न छोड़ दें..और ये न समझें कि जब हमसे वास्ता होगा..तब हम बोलेंगे...सब कुछ खत्म हो जाएगा...और फिर आप कुछ नहीं कर पाएंगे....बाकी फिर......

Wednesday, September 9, 2015

जो डर गया..वो मर गया

नई दिल्ली में दो बहनें हैं एक नाम है सुरभि और दूसरी का सिमरन..21 साल की सुरभि कानून की पढ़ाई कर रही है और बच्चों को टयूशन भी पढ़ाती है.. 19 साल की सिमरन साइंस से ग्रेज्यूएशन कर रही है। दोनों रात नौ बजे अपने 8 साल के छोटे भाई के लिए बर्थडे गिफ्ट और केक लेकर लौट रही थीं। घर के पास स्ट्रीट लाइट बंद थी जिस वजह से गली में अंधेरा छाया हुआ था....छोटी बहन सिमरन सीढ़ियों से घर के अंदर दाखिल हो चुकी थी जबकि सुरभि नीचे थी..एक हाथ में सामान था और दूसरे हाथ में मोबाइल से बात कर रही थी..तभी किसी ने पीछे से अचानक उसकी गर्दन दबोची और मुंह को दबा दिया ताकि चीख न निकल पाए। इसके बाद बदमाश उसका पर्स और मोबाइल छीनने लगा।

यहां तक बदमाश की बारी थी..उस लड़की ने बिना पीछे देखे..पलटकर जोरदार मुक्का उस शख्स के मुंह और पेट में जड़ दिया। बदमाश पेट पकड़कर कराहता हुआ भागा..इसके साथ ही लड़की चोर-चोर की आवाज लगाती हुई चिल्लाने लगी। छोटी बहन ने जैसे ही आवाज सुनी..वो भी ऊपर से नीचे सीढ़ियों से भागी और दोनों बहनों ने उस बदमाश का पीछा करना शुरू किया। इस भागदौड़ में बाकी लोग तमाशा तो देखते रहे लेकिन किसी ने साथ देने की नहीं सोची। नई दिल्ली के शादीपुर मेट्रो स्टेशन के पास एक और पैदल जा रहे शख्स की मदद से दोनों बहनों ने उस बदमाश को पकड़ लिया और कराटे के दांव-पेंच से नीचे गिरा दिया..बदमाश बेहोश होने का ड्रामा करने लगा लेकिन तब तक भीड़ तंत्र इकट्ठा हो चुका था..उसकी जमकर धुनाई हुई। इसके बाद पुलिस को बुला लिया गया।
इन दोनों लड़कियों ने दिल्ली पुलिस की सेल्फ डिफेंस प्रोगाम में ट्रेनिंग ली थी..जहां उन्हें जूडो-कराटे के कुछ टिप्स सिखाए गए थे कि कैसे बदमाशों पर पलटकर अटैक करना है। जैसे पीछे से कोई पकड़े हैं तो अपनी कुहनी को पीछे जोर से मारना है। मुंह पर किस तरह मारना है। सेफ्टी के लिहाज से ये लड़की बैग में पेपर स्प्रे लेकर चलती है। ट्रेनिंग तो काम आई ही..सबसे ज्यादा काम आया लड़कियों का आत्मविश्वास।
कहते हैं कि जो डर गया..वो मर गया...यदि आप में आत्मविश्वास है..हिम्मत है..हौसला है..तो इस तरह के सुखद नतीजे सामने आते हैं। उस बदमाश में भी आत्मविश्वास था..गलत काम के लिए...बल्कि अति आत्मविश्वास था..जिसे ओवर कान्फीडेंस कहते हैं...उसने लड़कियों का पीछा कर घर के बाहर लूटने का दुस्साहस जुटाया...यदि लड़कियां कमजोर होतीं..डरपोक होतीं..तो वो लूट कर चला जाता..और रो-पीटकर कोई कुछ नहीं कर पाता। उनमें इतनी हिम्मत थी..जितनी उस बदमाश में नहीं थी..इसलिए उस पर भारी पड़ीं...बेहतर जीवन हमें यही सिखाता है..कि जीवन जीयो तो हिम्मत के साथ जीयो...डरकर नहीं। उन्होंने बाकी लड़कियों को भी कहा है कि प्लीज..डरो मत..मुकाबला करो। बाकी फिर.......

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Tuesday, September 8, 2015

चेहरे को पढ़ना सीखिए....

शहर-हैदराबाद..एक 18 साल की लड़की..दूसरी 21 साल की लड़की...दोनों घर से अचानक लापता हो गईं..घर-परिवार परेशान..नाते-रिश्तेदार..आस-पड़ोस सब चिंतित...आखिर कहां गईं लड़कियां...पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी गई..लेकिन कई दिन बीत गए...पुलिस भी उनका पता लगा पाने में नाकाम..आजकल पुलिस के पास किसी को सर्च करने का सबसे बड़ा हथियार..मोबाइल...और सोशल मीडिया है....दोनों लड़कियां का मोबाइल सर्विलांस पर लगाया गया..लेकिन फोन बंद..पुलिस भी हैरान-परेशान..परिवार वाले पुलिस पर आरोप लगाने लगे कि वो नाकाम है..लापरवाह है..मानवाधिकार संगठनों के पास जाने की कोशिश हुई...

अचानक पुलिस को पता चला कि इन दोनों लड़कियों के मोबाइल हैदराबाद में ही किसी दुकान पर बेचे गए हैं..अब पुलिस के लिए मोबाइल का पता लगाना आसान हो गया..पुलिस दुकान पर पहुंची तो पता चल गया कि उन्हीं दोनों लड़कियों ने ही मोबाइल बेचे हैं...अब पुलिस का माथा ठनका..कि ये अपहरण नहीं..कुछ दाल में काला है...यहां से पुलिस आगे बढ़ी..और जो खुलासा हुआ..उस पर न तो पुलिस को भी भरोसा नहीं हो रहा था..घरवालों को भरोसे का सवाल ही नहीं होता।
इन दोनों लड़कियों ने सौ से ज्यादा फेसबुक प्रोफाइल बना रखे थे....सबके सब फर्जी...किसी और नाम से..उन पर फोटो...सुंदर और स्मार्ट लड़कियों के लगा रखे थे..फेसबुक पर दोस्ती गांठने के बाद फोन पर बात होती थी..और फिर उनसे पैसे एेंठती थीं...उनसे गिफ्ट लेती थीं...और जो नहीं मानता था..उसे ब्लैकमेल करने की धमकी देती थी। ऐसा उन्होंने केवल हैदराबाद में ही नहीं...आठ राज्यों में किया..जिनमें..देहरादून..बेंगलुरू..विशाखापट्टनम..लखनऊ भी शामिल हैं। अकेले हैदराबाद में ही पुलिस ने ऐसे 17 लड़कों को हिरासत में लिया..जो इन लड़कियों के झांसे में आए....जब मीडिया उस लड़की से बात कर रहा था...तो लड़की का दुस्साहस देखिए...उसने कहा कि क्या आप फ्रेंड नहीं बनाते हैं..आपकी फेसबुक पर कितने फ्रेंड हैं..क्या कोई ऐसा लड़का है जिसकी लड़कियां फ्रेंड नहीं है..मेरे मामा की ही सैकड़ों हैं। मैंने किसी से पैसे नहीं लिए..मैंने किसी को रिक्वेस्ट नहीं भेजी..अगर लड़के खुद फ्रेंड बनते हैं तो मेरा क्या कसूर...वगैरह-वगैरह..
वाकई ये सब हैरान कर देने वाला है...हैदराबाद में मुझे कुछ वक्त रहने का मौका मिला है...वाकई शानदार शहर है..खासकर पढ़ाई के मामले में...अव्वल दर्जे की पढ़ाई है..पूरे देश में मशहूर है..ऐसे शहर में..ऐसी लड़कियां...इसके लिए शहर को दोष नहीं दे सकते...दोष शायद परिवार वालों का भी न हो...आपके हमारे बच्चे के भीतर क्या पल रहा है..आप नही जान सकते..मेरे भीतर क्या पल रहा है..मेरे अलावा कोई नहीं जान सकता..आपके भीतर क्या पल रहा है...आपके अलावा कोई नहीं जान सकता....हर मां-बाप अपने बच्चों को अच्छा बनाना चाहता है...अच्छे संस्कार देने की कोशिश करता है लेकिन  चूक हम कहां कर जाते हैं..जब हम अपने बच्चों को नादान समझकर भरोसा कर बैठते हैं...भरोसा आंख मूंद कर नहीं किया जाता...सोच-समझ कर किया जाता है..चाहे आपका बच्चा ही क्यों न हो?....
इस घटना से उन माता-पिता को तो सबक है ही...उन लड़कों को भी है जो फेसबुक की चकाचौंध में स्मार्ट और सुंदर लड़कियों के पीछे भागते हैं...सुंदरता तन से नहीं होती..मन से नहीं होती...सोशल मीडिया अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए है..जानकारी जुटाने के लिए हैं...मनोरंजन के लिए भी है लेकिन नौजवानों को लगता है कि ये केवल किसी लड़के या लड़की को पटाने के लिए है..इसलिए अच्छी फोटो देखकर उस पर लपक लेते हैं...फेसबुक को छोड़िए..अगर सामने भी किसी लड़की को देखते हैं तो उसके चेहरे पर मर-मिटते हैं...पर यकीन मानिए...लड़कियां हों या लड़के..कोई भी हो..चेहरे पर मत जाईए..चेहरे पर चेहरे हर कोई लगा के घूम रहा है। जब नकाब उठता है तो पता चलता है कि वो कोई और है...जैसे उन लड़कियों के चेहरे से उठा है..उन लड़कों के चेहरे से भी उठा है...तो जीवन में इन चेहरों को कैसे पढ़ना है..कैसे परखना है..कैसे महसूस करना है..ये आपके ऊपर है..गलती करेंगे तो पछताएंगे....बाकी फिर......

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Monday, September 7, 2015

भरोसा क्यों घट रहा है पति-पत्नी में?

मेरे एक मित्र हैं..दोनों प्राइवेट जाब करते हैं..दोनों का साप्ताहिक अवकाश अलग-अलग दिन होता है..दोनों की डयूटी का वक्त अलग-अलग है। एक सुबह छह बजे घर से निकलता है तो दूसरा रात 12 बजे के बाद घर में दाखिल होता है। एक बेटी है। मुश्किल ये है कि दोनों में से एक को घर पर रहना जरूरी है। अगर वो किसी काम से बाहर जाते हैं..तो बेटी को भी साथ ले जाते हैं। ये पति-पत्नी दोनों को करना पड़ता है। बेटी अगर बीमार है तो एक-एक कर दोनों दफ्तर से छुट्टी लेते हैं। दोनों पति-पत्नी हर वक्त परेशान नजर आते हैं..एक तो दफ्तर के कामकाज का बोझ..दूसरा..बच्चे को लेकर टेंशन..इस आपाधापी में वो अपना जीवन तो मानो भूल ही गए हैं।

खाना-पीना कैसे चलता है..आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं..ज्यादातर या तो बाहर से इंतजाम होता है या फिर घर में सेंडविच..बर्गर और ब्रेड आमलेट जैसी चीजों से पेट भरते हैं। इधर दफ्तर का तनाव..उधर बच्चे का तनाव और उसके बावजूद वेतन पूरा नहीं होता..महीने के अंत में उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें हमेशा और लंबी हो जाती हैं। 20 हजार से ज्यादा मकान का किराया..20 हजार से ज्यादा अपने होने वाले मकान की ईएमआई...कार का लोन..कुल मिलाकर एक वेतन लोन में ही निकल जाता है। ऊपर से कोई बड़ा खर्च आ जाए..तो फिर कहने ही क्या?

एक और मित्र है..उनकी भी लगभग यही कहानी है लेकिन उनके दफ्तर का तालमेल नहीं बैठा तो उन्होंने मेड लगा ली..लेकिन दफ्तर से फोन पर बराबर मेड और बच्चे के हालचाल लिए जाते हैं..अगर फोन नहीं लगता है तो मन बेचैन हो जाता है..बच्चा स्कूल से आया कि नहीं..कुछ खाया कि नहीं...तबियत ठीक नहीं थी..कहीं ज्यादा तो नहीं बिगड़ गई होगी..तरह-तरह की आशंकाएं मन में आती हैं। जाहिर है जब इस तरह तनाव लेते हैं तो आप पर भी शारीरिक और मानसिक असर पड़ना ही है..इसलिए ब्लड प्रेशर और डायबिटीज भी साथ में लेकर चल रहे हैं...जब तनाव बढ़ता है तो गोलियां खा लेते हैं।

अब तीसरा उदाहरण...नोएडा में पुलिस के पास हर महीने करीब सौ केस ऐसे आ रहे हैं जो पति-पत्नी से झगड़े से ताल्लुक रखते हैं। वजह भी बताई गई हैं..जैसे..पति का सुबह जल्दी जाना..देर रात आना...घर में आकर बात न करना...एक दूसरे को टाइम न देना..पत्नी का अकेला रहना..काम में हाथ न बंटाना..छोटी-छोटी बातों को इग्नोर न करना..और झगड़ जाना...ये शिकायतें पति की भी हैं..पत्नी की भी हैं...कुल मिलाकर खबर का सार ये है कि पति-पत्नी में भरोसा घट रहा है। कोई देर रात घर लौट रहा है तो शक हो रहा है..कोई अकेला रह रहा है तो शक हो रहा है..कोई फेसबुक..whatsapp पर लगातार चैट कर रहा है तो शक हो रहा है। कोई फोन नहीं उठा रहा है तो शक हो रहा है..और अगर फोन बंद आ रहा है तो शक और गहरा जा रहा है।

आपाधापी की इस जिंदगी में ज्यादातर पति-पत्नी समझौते की तरह रह रहे हैं..ज्यादा तनाव पर अलग भी हो जा रहे हैं..या फिर अपनी तरह से जिंदगी जी रहे हैं...या फिर जिंदगी ढो रहे हैं...ये हमारे ऊपर है कि हम अपनी जिंदगी को कैसे खुशहाल बनाएं..खुशहाल जिंदगी बेशुमार दौलत से भी नहीं खरीदी जा सकती....आपसी समझ..वक्त निकालने..प्यार जताने..और एक-दूसरे पर भरोसा करेंगे तो शायद जिंदगी कुछ आसान हो....बाकी फिर....
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हिम्मत न हारो, हार न मानो

इंटरनेट काम नहीं कर रहा था,कंपनी के कस्टमर केयर पर फोन किया..फोन पर बोले..लाइन पर रहिए..ठीक करते हैं..कोशिश करते रहे..आनलाइन ठीक नहीं हुआ..बोले आपकी कंपलेंट लिख ली..24 घंटे में हमारे इंजीनियर आपकी सेवा में हाजिर होंगे..ठीक हो जाएगा...सुबह इंजीनियर का फोन आया..दोपहर 12 बजे तक आऊंगा..अगर कस्टमर केयर से कोई काल आए..तो कह देना..थोड़ा समय हमने ही आगे कर दिया है..उसके बाद इंजीनियर आए..बोले..सब ठीक है..आपके यूपीएस में दिक्कत है..अगर आप सीधे कनेक्ट कर लेंगे..तो ठीक हो जाएगा...उनके जाने के बाद मैंने खुद ही तार निकाल कर लगा कर जहां जैसे बुद्धि चली..इंटरनेट चालू कर लिया।
 कुछ दिन ठीक चला..फिर दिक्कत आने लगी...मैंने फिर कंपनी के कस्टमर केयर फोन किया..फिर इंजीनियर आए..अबकी बार एक नहीं दो आए एक साथ...बोले...आपके मोडम में दिक्कत हैं..किसी ने छुआ था..खोला था..मैंने कहा..नहीं..किसी ने कुछ नहीं किया..आपके ही एक इंजीनियर साहब आए थे..वही ठीक करके गए थे..वो कह रहे थे..कि यूपीएस में दिक्कत है..सीधे कनेक्ट करिए..ठीक चलेगा..मैंने सीधे कनेक्ट किया..नहीं चल रहा..अब आप कह रहे हैं कि मोडम में दिक्कत है..मोडम तो उन्हीं ने छुआ था..और किसी ने नहीं...

अब उन्होंने अपना तकनीकी ज्ञान एप्लाई करना शुरू किया। जो सार सामने आया..वो चौंकाने वाला था...बोले..आपका कंप्यूटर ठीक नहीं..आपका लैंडलाइन ठीक नहीं..आपका मोडम ठीक नहीं...मैंने कहा..जब कुछ भी ठीक नहीं..फिर अब तक कैसे चल रहा था..उनके पास कोई जवाब नहीं..बोले... अब भी चलता रहेगा..और न चले तो एक-एक कर उपकरण बदलवा लेना..मैंने कहा..ये भी ठीक है। बोले..फोन कनेक्ट मत करना..फोन से नेट में दिक्कत आ रही है। उन्होंने कंपनी को लिखवाया..इनका सब कुछ खराब है..कंप्यूटर, मोडम, फोन,...कंपलेंट कंपलीट हो गई है।
उनके जाते ही मैंने अपना लैंडलाइन भी जोड़ दिया..बात भी होती रही..मोडम भी चलता रहा..कंप्यूटर भी चलता रहा..उसके कुछ दिनों बाद फिर दिक्कत आई... मैंने फिर कंपलेंट की..कंपनी को बताया कि जब सब कुछ खराब है तो फिर कई दिन तक फिर सब कुछ कैसे चलता रहा..कंपनी ने फिर कंपलेंट रजिस्टर्ड की..और बोले..24 घंटे में ठीक हो जाएगा
..कस्टमेयर से बात करने के थोड़ी ही देर में उसी इंजीनियर का फोन आया..बोला...हेलो-हेलो..आप मेरी आवाज सुन रहे हैं..मैंने कहां..हां..बोले..हमें आपकी आवाज ठीक नहीं आ रही है..आपसे कहा था कि आप लैंडलाइन फोन बदलवाओ...आपसे कहा था कि मोडम बदलवाओ..आपसे कहा था..कि कंप्यूटर ठीक कराओ..या नया लो..आपने कुछ नहीं किया..आपकी प्राब्लम ठीक कैसे होगी...

इतने दिनों के धैर्य के बाद जाहिर है..थोड़ा गुस्सा आ गया..मैंने कहा..भाई साहब..आप तो आना ही मत..अब मैं सारी चीजें बदलवा लूंगा..और ये कनेक्शन भी बदलवा लूंगा..धन्यवाद..आप नाराज मत हों..आप कष्ट मत उठाएं..गलती मेरी है।
बाकी सब तो ठीक था..लेकिन एक लाइन मैंने जो कही..उससे उनके नेत्र खुल गए..थोड़ी देर में उनसे बड़े वाले साहब का फोन आया..उन्होंने बड़े ही नम्रता से बात की..और कहा कि जो कुछ आपने बताया है..उसके आधार पर मैं जिस नतीजे पर पहुंचा हूं..उसके मुताबिक..आपके कंप्यूटर में वायरस है..वो इंटरनेट को कहीं और ले जा रहा है...आपका इंटनेट कंज्यूम हो रहा है..लेकिन कहीं ओर...मैंने कहा..वाईफाई पर ठीक चल रहा है..बोले..हां..वाईफाई पर ठीक चलेगा..लेकिन कंप्यूटर जरूर ठीक करा लीजिए..नहीं तो दस हजार का चूना लग जाएगा..वायरस आपके डाटा को हैक कर सकता है..न जाने क्या-क्या नुकसान हो सकता है। मुझे भी लगा कि मामला गंभीर है..
थोड़ी देर बाद में मैंने कंप्यूटर के प्रोग्राम को चैक करना शुरू किया..और इंटरनेट खुद ही चालू कर लिया..अब पता नहीं वो वायरस हट गया..या फिर क्या हुआ..लेकिन कंप्यूटर चालू हो गया..शायद वो इंजीनियर भी इतना कष्ट उठा सकते थे...मेरा कंप्यूटर था..मुझे जरूरत थी..मेरा नुकसान इससे जुड़ा था..इसलिए मैं जुटा रहा..कामयाबी मिल ही गई..पहले भी कई बार ऐसे ही ठीक किया...
ये मैं अपनी तारीफ में नहीं लिख रहा..इससे मुझे एक सबक मिला..कि लगे रहो..जुटे रहो..मेहनत करते रहो..विचार करते रहो...संघर्ष करते रहो..तो कामयाबी मिलती ही है...ये तो कंप्यूटर की बात है..कई उदाहरण हैं..जो बिलकुल जीरो से चले थे..और सौ पर पहुंचे..हजार..लाख तक पहुंचे..करोड़ों तक पहुंचे..सब नहीं पहुंचे..जरूरी नहीं कि हर कोई जीरो से करोड़ों तक पहुंचें लेकिन लगे रहें..तो सौ तो मार ही सकते हैं..इसलिए..हिम्मत नहीं हारना है..हार नहीं मानना है...बाकी फिर....

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Saturday, September 5, 2015

पति को मत बताना...

एक श्रीकृष्ण सुदामा की दोस्ती थी और एक दोस्ती की खबर ऐसी है कि जिससे आपके होश उड़ जाएं। ये खबर कुछ सोचने पर मजबूर करती है..कुछ सीख देती है..और कुछ आजकल के हालात को बयां करती है। नोएडा में एक महिला शादीशुदा है..फेसबुक पर उसकी दोस्ती विदेश में रहने वाले किसी शख्स से हुई..चैटिंग चलती रही। जब दोस्ती गहरी हो गई..भरोसा बढ़ गया तो विदेशी शख्स ने उसे एक मैसेज भेजा कि वो इंडिया आ रहा है..और उससे मिलेगा...महंगे-महंगे गिफ्ट भी उसने लिए हैं जो वो उसे देगा..शख्स ने फिर मैसेज भेजा कि वो मुंबई एयरपोर्ट पर है और महंगे गिफ्ट के कारण कस्टम में फंस गया है..एयरपोर्ट से निकलने के लिए जुर्माना भरना होगा..उसे एक लाख 20 हजार रुपए की जरूरत है..जो वो बाद में उसे दे देगा..महिला ने उसके एकाउंट में एक लाख 20 हजार की रकम डाल दी। बस दोस्त दोस्त न रहा..पैसा ट्रांसफर हुआ और दोस्त लापता..फेसबुक से महिला को ब्लाक कर दिया गया। अब लुटने-पिटने के बाद महिला थाने पहुंची..और सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वो महिला अपने पति से भी घबरा रही है..उसने पुलिस से आग्रह किया कि उसके पति को पता न चले..एक तो विदेशी शख्स से दोस्ती और चैटिंग..ऊपर से रकम भी गंवा दी।

ऐसी ही एक घटना और नोएडा में कुछ दिनों पहले हो चुकी है। इसमें भी उस महिला से एक लाख 20 हजार रुपए इसी तरह मांगे गए...लुटने के बाद थाने का चक्कर काटती रही..लेकिन कुछ नहीं होने वाला..क्योंकि न तो पुलिस को इतनी फुर्सत है कि वो विदेश से हुए फ्राड को पता लगाने के लिए मशक्कत करे और न ही महिला के बस की है कि वो विदेश जाकर तलाश करे।
कुल मिलाकर ये दोस्ती की हकीकत है..किसी को भी दोस्त बनाना..और दोस्ती जब गलत इरादे से हो..तो फिर वो दोस्ती ही नहीं रही...वो चीटिंग हुई..पहले दोस्ती बनाकर और फिर फ्राड कर। हैरानी की बात ये है कि एक तो फेसबुक पर हम किसी से इतनी गहरी दोस्ती कैसे गांठ लेते हैं जबकि आप न तो उसे मिले हैं..न जानते हैं..न कोई मध्यस्थ है। दूसरे दोस्ती के बाद इतना भरोसा कर लेना..इससे पता चलता है कि कई लोग जीवन को लेकर कितने कच्चे हैं..कितनी ही पढ़ाई कर लो..कितनी ही प्रतियोगिता जीत लो..लेकिन जीवन का फलसफा नहीं सीखा तो हर जगह मात खाओगे..हर मोड़ पर गिरोगे..हर मंजिल पर पहुंचने से पहले रुक जाओगे। कौन सही है..क्या सही है...किससे कितना संबंध रखना है..क्यों रखना है...कैसे व्यवहार करना है..किसी की कितनी बात मानना है..कितनी नहीं मानना है। ये हमें ही तय करना होगा और तय करने के पहले अच्छी तरह से सोचना-समझना होगा..अपने दिमागी स्तर को ऊंचा करना होगा..नहीं तो कोई भी आपको बेवकूफ बनाकर निकल जाएगा..और आप हाथ मलते रह जाओगे। जिसने ठगा भले ही वो गलत हो लेकिन उसका दिमागी स्तर उससे बेहतर है जो ठगा गया है...बाकी फिर.....
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Thursday, September 3, 2015

पति, पत्नी और वो

एक छोटी सी खबर है..लेकिन है घर-घर की कहानी..भले ही इस खबर को मीडिया प्रमुखता से न ले..लेकिन हर घर में.हर दफ्तर में...हर उम्र के लोगों में..ये लत असर डाल रही है। पहले आप खबर पढ़ लीजिए..लखनऊ में पत्नी ने अपनी पति की थाने में शिकायत कर दी..पति को भी थाने बुलवा लिया गया। पत्नी का कहना था कि शादी को दस साल हो गए..पहले उनके पति बहुत प्यार करते थे..उन्हें समय देते थे..उनकी बात सुनते थे लेकिन अब बिलकुल बात नहीं करते..कोई सवाल करो..तो जवाब नहीं देते..

हर वक्त या तो फेसबुक पर लगे रहते हैं या फिर कैंडी क्रश गेम खेलते रहते हैं। जब भी कुछ कहो..तो कहते हैं अभी कुछ सर्च कर रहा हूं। शादी के बाद मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि पति के साथ ज्यादा वक्त बिताऊं लेकिन पति को जब से सोशल मीडिया और गेम का चस्का लगा है। बात करनी ही छोड़ दी है। इससे कलह होने लगी है। इसी खबर के साथ एक और खबर है कि तमिलनाडू में डीएम की मौजूदगी में किसानों की समस्याएं सुनी जा रही थीं और एक महिला अफसर कैंडी क्रश खेलने में जुटी हुई थीं। किसी ने उनका वीडियो बना लिया और वीडियो वायरल हो गया। इसके बाद उन महिला अफसर से जवाब-तलब किया गया।
ये समस्या अब एक घर की नहीं..घर-घर की है। दफ्तरों की भी है। हमारे कई मित्र हैं..सरकारी दफ्तर में काम कर रहे हैं..प्राइवेट संस्थान में काम कर रहे हैं..लेकिन दिन भर फेसबुक और वाटसएप पर जुटे रहते हैं। दनादन पोस्ट डालते रहते हैं। बच्चों का तो और बुरा हाल है..स्कूल से आने के बाद पहले टीवी चलती थी..अब मोबाइल पर चिपके रहते हैं। दिन भर या तो सेल्फी बनाते हैं..या फिर चैटिंग करते हैं या फिर गेम खेलते रहते हैं। टाइम पास..शौक तक तो ठीक है लेकिन जब आपकी पढ़ाई प्रभावित होने लगे..घर का कामकाज प्रभावित होने लगे या फिर दफ्तर के कामकाज में लापरवाही बरतने लगे..तो ठीक नहीं..

कहते हैं कि हर चीज की कमी और हर चीज की अति खराब होती है..वो सोशल मीडिया के साथ भी है। जब आप फ्री हैं..जब जरूरी है..अपडेट होना है..तो बात समझ में आती है लेकिन अपना मूल काम छोड़कर दिन भर और रात भर अगर मोबाइल पर चिपके रहेंगे तो जाहिर है कि परिवार में कलह होगी ही..शारीरिक और मानसिक रूप से भी आप पर असर पड़ेगा। जीवन में संतुलन बहुत जरूरी है। हर चीज का समय होता है..मौका होता है..माहौल होता है..लेकिन हर जगह अगर आप मोबाइल को तवज्जो देंगे तो ये न तो आपकी सेहत के लिए ठीक होगा और न ही आपसे जुड़े लोगों के लिए..जैसे सिगरेट पीने वाला खुद को जितना नुकसान नहीं पहुंचाता उससे ज्यादा सामने वाले को धुआं देकर..यही हकीकत मोबाइल और सोशल मीडिया की लत के साथ है..बाकी फिर....
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मौत के लिए मेहनत..जीने के लिए नहीं

बेंगलुरु की 26 साल की ईशा हांडा ने 13 वीं मंजिल से कूद कर खुदकुशी कर ली। जाहिर है कि उसके परिवार और जानने वालों को छोड़कर बाकी के लिए एक खबर है..देश में हर रोज लोग खुदकुशी करते हैं..कोई बेरोजगारी में..आर्थिक तंगी में..कोई परीक्षा में फेल होने पर..कोई प्रेम में असफल होने पर...हर किसी की अपनी-अपनी वजह..लेकिन ये खुदकुशी बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है क्योंकि इसकी दो वजह हैं।

पहली वजह ये है कि सुसाइड के लिए ईशा ने गूगल का सहारा लिया। 48 घंटे तक गूगल पर सर्च करने में जुटी रही। सबसे पहले उसने ये तलाश की कि खुदकुशी कैसे की जा सकती है..कितने तरीके हैं मरने के..इसके साथ ही ईशा ने ये भी सर्च किया कि आत्महत्या के कौन-कौन से तरीके हैं..इनमें कौन सा तरीका सबसे अच्छा है.
यही नहीं..जब तसल्ली से सर्च के बाद उसने पाया कि इमारत से कूदना सबसे अच्छा तरीका है तो फिर उसने सर्च किया कि किस तरह की इमारत खुदकुशी के लिए बेहतर रहेगी। इसके बाद उसने पाया कि कम से कम दस मंजिल की इमारत से खुदकुशी अच्छी तरह से की जा सकती है और उसके बाद बेंगलुरु की शोभा क्लासिक बिल्डिंग की 13 वीं मंजिल को खुदकुशी के लिए चुना। इसके पहले उसने चलती ट्रेन से कूदने..जहर खाने. नींद की गोलियां ज्यादा मात्रा में खाने...रस्सी से लटक कर जान देने, सांस रोक कर जान देने के विकल्प भी सर्च किए।
आप जानकर हैरान होंगे कि फैशन डिजायनर और वेलनेस कंसल्टेंट ईशा ने 89 से ज्यादा बेवसाइट खंगालीं। सबके बारे में विस्तार से पढ़ा और ये भी देखा कि जिंदा बचने का कोई विकल्प न हो और मरने के बाद खुदकुशी का क्या हश्र होता है। इस वजह को देखने पर पता चलता है कि ये लड़की बिलकुल निश्चिंत थी सुसाइड के लिए...मौत फाइनल कर चुकी थी..बस ये जानना चाहती थी कि खुदकुशी कैसे करनी है। क्यों करनी है..इसकी वजह उसके पास थी और दूसरा विकल्प नहीं था..ऐसा उसने सोच लिया था।
दूसरी वजह सुसाइड के लिए दो दिन तक इंतजार करना है। अक्सर जो थ्योरी बताई जाती है उसके हिसाब से सुसाइड का कारण तात्कालिक होता है। वजह भले ही पुरानी हो..समस्या भले ही लंबे समय से चली आ रही हो..लेकिन जब सुसाइड किया जाता है तो शख्स गहरे अवसाद में होता है..अचानक उस समस्या से उस वक्त इतना दुखी हो जाता है..इतनी निराशा में होता है..या फिर उस वक्त लगता है कि अब जीने का कोई मतलब नहीं..बस खुदकुशी कर बैठता है..लेकिन इस लड़की के साथ ऐसा नहीं हुआ...वो तय कर चुकी थी और तसल्ली से उसने गूगल को सर्च किया कि खुदकुशी का कौन सा तरीका चुना जाए।
जो खबर है..उसके मुताबिक घरवाले उसकी शादी की बात कर रहे थे..लेकिन ये स्पष्ट नहीं कि उसका कहीं अफेयर था.या फिर वो शादी नहीं करना चाहती थी या फिर..कोई और कारण।
कारण कुछ भी हो सकता है लेकिन जीने का मकसद खत्म करना..हारना है..जिंदगी से हारना और अगर ऐसा क्षण आ जाता है तो मौत चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। किसी के लिए छोटी सी समस्या खुदकुशी की वजह बन जाती है और किसी के लिए हजारों समस्या होने पर भी नहीं बनती..इंसान उन समस्याओं से लड़ता है..या फिर स्वीकार कर लेता है..या फिर समझौता कर लेता है..या फिर उनके साथ जैसे-तैसे जीता है लेकिन मौत का विकल्प नहीं चुनता। किसी के लिए छोटी सी वजह जिंदगी से हारने का मकसद बन जाता है।
जिंदगी मिली है तो उसने जीने का जज्बा भी होना चाहिए...समस्याओं से निपटने का भी..जिंदगी को बेहतर करने का भी..इंसान न जाने कितनी बार हारता है..अलग-अलग मोर्चे पर...लेकिन फिर उठ खड़ा होता है...समस्याओं को ढोकर भी चलता है लेकिन जीता है..यही जज्बा जीवन में जरूरी है। न तो गलतियां रुकने वाली हैं..न ही समस्याओं से छुटकारा मिलने वाला है...अगर उम्मीद से जिए..पाजिटिव जिए..तो ठीक है..वरना कोई इंसान ऐसा नहीं चाहे कितना ही बड़ा आदमी हो..कि उसके साथ समस्याएं न हों..अगर वो लड़की पाजिटिव थिंकिंग रखती तो शायद ऐसा न करती। ये बात अलग है कि गूगल पर सुसाइड को खोजने के लिए उसने 48 घंटे मेहनत की..लेकिन जीवन से लड़ने के लिए नहीं....बाकी फिर.....

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Wednesday, September 2, 2015

सोशल मीडिया पर छाने का सबसे आसान तरीका

सोशल मीडिया पर छाने के लिए लोग तरह-तरह के जतन कर रहे हैं..एक सज्जन हैं वो चाहे रेलवे स्टेशन पर हों..बस स्टैंड पर हों और एयरपोर्ट पर हों तो कहने ही क्या..तत्काल एक सेल्फी फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं..आईएमवेटिंग फार दिस सिटी..ज्यादातर लोग तो एयरपोर्ट की सेल्फी डालते हैं लेकिन जिन्हें हवाई जहाज नसीब नहीं हो रहा है तो वो ट्रेन या बस से ही काम चला लेते हैं। कुछ लोग हैं वो मेट्रो में ही बेचैन हो जाते हैं..मेट्रो में ही सेल्फी लेकर फेसबुक पर टटोलते हैं कि कितने लोग लाइक कर रहे हैं..या फिर कमेंट पास कर रहे हैं..मंजिल आते-आते मजा आ जाता है।

कुछ लोग हैं वो राजनीति के अखाड़े में कूदे हुए हैं..कभी आरक्षण..कभी मोदी..कभी नीतीश..कभी लालू..कभी स्मार्ट सिटी..कभी शीना मर्डर केस..जब जैसा मौका हो..एक पोस्ट डाला..धड़ाधड़ बहस शुरू..अगले दिन..अगले विषय की खोज होती है..कुछ विवादास्पद बयान देकर माहौल गर्माने की कोशिश कर रहे हैं..
कुछ राजनीति में कमजोर हैं..कहीं जा भी नहीं रहे हैं..कुछ नया नहीं हो रहा है तो बच्चों और परिवार पर ही आ जाते हैं...बेटा साइकिल पर बैठा है..बेटा पढ़ाई कर रहा है..बेटे को सिखा रहे हैं कि ऐसे पोज बनाओ..फेसबुक पर डालना है..राखी बांधने पर भी फेसबुक पर डालना है..फिर दिन भर ये चैक करना है कि किस-किस ने लाइक किया..किस-किस ने कमेंट किया...कुछ अलग हटकर चलना चाहते हैं तो शेर-शायरी पर चंद लाइनें फेंक रहे हैं..कोई आहें भर रहा हैं तो कोई वाह कर रहा है..कुछ नई-नई तस्वीरों को सामने लाने पर जुटे हैं।

कुछ मौके का फायदा उठा कर अपने मन की भड़ास निकाल रहे हैं..मसलन कौन पत्रकार ज्यादा कमाई कर गया..किसके किससे संबंध हैं..कौन नेता किस लड़की के साथ गलबहियां डाले हुए हैं...किसका भूत क्या है..किसका वर्तमान क्या है..किसका भविष्य क्या है...कुछ ऐसे भी हैं जो सोशल मीडिया से दूरी बनाए हुए हैं..यहां तक कि उन्होंने फेसबुक..ट्विटर पर अपना एकाउंट तक नहीं बनाया है।

कुल मिलाकर बड़ा ही दिलचस्प नजारा है....इन सबके पीछे दो ही मकसद है..एक तो अपने मन की भड़ास निकालना..दूसरा खुद को लाइम लाइट में लाने की कोशिश...इसमें कोई बुराई नहीं..लेकिन हद से बाहर तब हो जाता है जब कुछ लड़कियां..कुछ महिलाएं..अपने कपड़े उतार कर लाइमलाइट में लाने की कोशिश में सामने आती हैं...जब उनकी समझ में कुछ नहीं आया..न लिखा- न पढ़ा..न समझा...न सोचा..न विचार किया..दिमाग खाली है तो एक ही उपाय बचता है कि एक-एक कर कपड़े उतारो...जितने विचारक हैं...वे भी हमारे सामने नतमस्तक हो जाएंगे....सब नहीं होंगे..तो आधे से ज्यादा हो ही जाएंगे....इसलिए हर रोज सोशल मीडिया पर महिला जगत के नए-नए अवतार आ रहे हैं...मुस्कराते हुए..और जैसा देश वैसा भेष की तरह उन्हें देखने वाले ही उतने ही निर्लज्ज तरीके से कमेंट भी करते हैं...
गूगल के लिए सब समान हैं...चाहे वो महिलाएं हों या फिर मोदी जी....आपका जहां पोस्ट है..उसी के नीचे भयानक दर्शन हैं..कहीं राजनीति पर गंभीर बहस चल रही है तो उसके नीचे कोई नाम मात्र की ड्रेस में पोज दिए विराजमान है। जिस तरह राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, मीडिया, साहित्य, खेल आदि के ग्रुप बने हुए हैं तो ऐसी महिलाएं भी ग्रुप में दो-दो हाथ कर रही हैं..या फिर पूरा शरीर कर रही हैं। खुद की पहचान बनाने में कोई बुराई नहीं..खुद की सोच..विचार, स्मार्टनेस..स्टाइल में कोई बुराई नहीं..लेकिन कम से कम शरीर को मत बेचो...शरीर तो ठीक है..आत्मा भी बेचने को आतुर मत हो. अगर खुद का ख्याल नहीं करना है तो..कम से कम अपने परिवार का ख्याल करो..कम से कम अपने आसपास का तो ख्याल करो...कम से कम सोशल मीडिया का तो ख्याल करो...खुद बिक गए..शरीर बिक गया..आत्मा बिक गई..तो बचा क्या...जीवन जीने का नाम है..जिंदगी आनंद का नाम है..जिंदगी फन का नाम है..पर जिंदगी का बाजार मत बनाओ...किसी का भी ख्याल नहीं रखना है तो कम से कम उस प्रभु का ख्याल करो..जिसने जिंदगी का अनमोल तोहफा दिया है....बाकी फिर......

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Tuesday, September 1, 2015

दिल न मांगे मोर...

पहले साइकिल, फिर बाईक, फिर छोटी कार..उसके बाद और बड़ी कार..और फिर हर साल लेटेस्ट कार..कार के बाद हैलीकाप्टर..हवाई जहाज और उसमें भी लेटेस्ट...पहले किराए का एक कमरे का मकान..फिर दो कमरे का..फिर तीन कमरे का..फिर खुद का छोटा सा मकान..फिर उससे बड़ा..फिर उससे और बड़ा..फिर बंगला..बच्चे का स्कूल..पहले छोटा स्कूल..फिर बड़ा स्कूल..फिर और नामी स्कूल...चाहे रहन-सहन हो खान-पान हो..पहनावा हो..जो हम पा लेते हैं..वो बेकार लगने लगता है..बेस्वाद हो जाता है..सामान्य हो जाता है..जो नहीं पाया है वो अच्छा लगता है।

दिमाग भले ही इजाजत न दे लेकिन दिल है कि मानता नहीं..दिल हमेशा कहता है कि और चाहिए..ज्यादा चाहिए..जो पा लिया वो हमारा हो गया..ये तो हमने भोग लिया..जो नहीं भोगा है..उसे भोगना है...जब लालच..घृणा..साजिश..धोखाधड़ी से बात नहीं बनती तो दिल काबू में नहीं रहता और हम अनर्थ कर बैठते हैं..शीना मर्डर केस उसका उदाहरण है। ये तो बड़ा केस था..दिल्ली और आसपास ऐसे हर रोज उदाहरण देखने को मिलते हैं..दूसरे शहरों से आए लड़केज-लड़कियां...कोई एमबीए करने आता है..कोई इंजीनियरिंग करता है..कोई और कंपटीशन की तैयारी करता है..दूसरों का देखा-देखी खर्चा नहीं चलता..माता-पिता पढ़ाई के लिए सीमित खर्च देते हैं...बेटा-बेटी यहां चमक-दमक में खो जाता है..पहले तो नौकरी मिलती नहीं..और मिल भी गई तो 10-20 हजार की...एक कमरा ही 10 हजार में नहीं मिलता..सिगरेट..शराब..माल..मूवी..पार्टी..प्रेमिका को गिफ्ट..खर्चा कैसे चलेगा..क्या करें...दिमाग साफ कहता है कि अब बस में नहीं..दिल कहता है कि नहीं और चाहिए...आखिर एक ही उपाय बचता है...या तो धोखाधड़ी करो..या फिर सीधे क्राइम में उतर जाओ..सबसे आसान महिलाओं की चैन छीन लेना..पर्स छीन लेना..एटीएम कार्ड लूट लेना..जब इससे भी पेट नहीं भरता तो और बड़ा क्राइम...
फिर लगता है कि महीने के 50 हजार..एक लाख में क्या होता है कोई बड़ा करो..एक झटके में सब कुछ आ जाए..एटीएम की कैश वैन लूट लो..किडनेप कर लो...किसी बडे़ आदमी का मर्डर कर दो..गाड़ी लूट लो...
दिल मांगे मोर..ये कभी रुकने वाला नहीं..क्राइम से 10-20 लाख कमा लिए..लेकिन खर्चा और बढ़ गया..फाइव स्टार होटल में पार्टी...फ्लाइट से सफर..महंगी गाड़ी का शौक..सब कुछ खर्च हो जाता है..इसलिए एक क्राइम से कैसे काम चलेगा..ये भी नौकरी जैसा ही हो गया..हर महीने करो..ताकि खर्चा चले..डिमांड तो पूरी हो...

जीवन में ये इच्छा हर किसी की है..हमारी भी है..आपकी है..दिल हमेशा मोर कहता है..जो पा लेते हैं..वो व्यर्थ हो जाता है..जो नहीं पाया है निगाहें उसी ओर रहती हैं..अगर हमने काबू रख लिया तो ठीक है..नहीं रख पाए..तो जीवन को खोने की ओर बढ़ेंगे...मेहनत से कोई चीज तत्काल नहीं मिलती है..ईमानदारी से तो और भी नहीं मिलती है..अगर संतोष नहीं रखा..काबू नहीं रखा..धैर्य नहीं रखा...तो समझ लो..हम अपने लिए गडढा खोदने जा रहे हैं...कोशिश करो..कि हर वक्त सोचो..दिल न मांगे मोर....बाकी फिर.....