Wednesday, July 29, 2015

फांसी याकूब को नहीं लगी है....?

फांसी याकूब को नहीं लगी, फांसी सियासत को लगी है, देश में सुप्रीम कोर्ट से बड़ा कौन है, देश में राष्ट्रपति से बड़ा कौन है, देश में राज्यपाल से बड़ा कौन है, देश में संविधान और कानून से बड़ा कौन है, इन सबसे बड़ी है सियासत, जो किसी के भी फैसले पर सवाल उठाती है, किसी की भी पैरवी करती है, संविधान के तहत जो भी चल रहा है, उसका विरोध करती है, फांसी के कुछ घंटे पहले तक ही नहीं, फांसी के बाद भी उस पर सवाल उठते हैं, याकूब की फांसी को लेकर जो कुछ भी हुआ, जिन लोगों ने भी किया, ठीक नहीं किया, उन्होंने संविधान और सुप्रीम कोर्ट पर सवाल नहीं उठाए, खुद पर सवाल उठाए हैं।


एक याकूब के लिए कुछ लोग इतने परेशान क्यों हो गए, जो मुंबई ब्लास्ट में मारे गए थे, उनके लिए क्यों परेशान नहीं हुए, एसपी शहीद बलजीत सिंह के लिए लोग इतने परेशान क्यों नहीं होते, दिल्ली में कितने बेसहारा बच्चे, बूढ़े, महिलाएं दो वक्त की रोटी के मोहताज हैं, उनके लिए क्यों परेशान नहीं होते, किसी बच्ची या महिला से रेप होता है, उनके लिए क्यों आवाज नहीं उठाते, याकूब के लिए टविटर, फेसबुक और टीवी चैनल के माइक के आगे क्यों खड़े हो जाते हैं, जिनकी सुबह जागते ही और रात सोने के पहले बयान दिए बिना चैन नहीं आता, खाना नहीं पचता, उन्हें भूख से तड़पते जानवर तो छोड़ इंसान नहीं दिखते। उन्हें याकूब क्यों दिखता है?
याकूब इसलिए दिखता है क्योंकि याकूब उनकी सियासत का मोहरा है, याकूब उन्हें नेता बनाता है, उनका स्वार्थ पूरा करता है, उनका पेट बड़ा करता है जिस पेट में स्वार्थ, सियासत, काली कमाई का टयूमर कई किलो का है, इसके बावजूद उस टयूमर से मन नहीं भर रहा है, उसे तब तक भरना चाहते हैं जब तक कि वो फट न जाए, हां ये बात अलग है कि जब फटता है तो बड़ा दर्द होता है। ऐसा ही अफजल के केस में हुआ था, बड़ी हाय तौबा मचाई गई, इससे कुछ ज्यादा याकूब के मामले में हुई, मैं भी रात भर जागता रहा, इस देश के कुछ लोगों की सियासत की नौटंकी देख रहा था, इस देश की सहनशीलता भी देख रहा था, इस देश के मीडिया को भी देख रहा था, सब अपने-अपने काम में जुटे थे, कोई इस बात का श्रेय लेना चाह रहा था कि वो लगातार कवरेज कर महान काम कर रहे हैं, कुछ इस बात से खुश थे, कि इस फांसी में आधी रात को भी पेंच फंसा दिया गया है।
ये हमारा ही देश है जहां इतने सालों बाद याकूब को फांसी की नौबत आई, वो तो इतने साल वैसे ही जेल में सड़ चुका था, उसके परिवार के लिए उसका होना न होना बराबर था, सुप्रीम कोर्ट में इतना विचार हो गया, राष्ट्रपति, राज्यपाल और सरकार ने इतना विचार कर लिया, फिर सवाल कहां से उठ गया, क्या जो सवाल उठा रहे हैं, वो इन सबसे बड़े हैं या फिर ये हमारे संविधान की सहनशीलता है कि जो संविधान का पालन करा रहे हैं, वो भी इन्हें सुनने को बाध्य हैं, बात याकूब की करते हैं तो गुस्सा आता है, वो भी तथाकथित पढ़े-लिखे लोग, समाज को सुधारने वाले ठेकेदार, बात कलाम की क्यों नहीं करते, कलाम की जितनी बात करना है करो, सवाल उठाने वाले थोड़ा सा कलाम से भी सीख लें, लेकिन क्यों सीखेंगे क्योंकि कलाम तो देना जानते थे, जो सवाल उठा रहे हैं वो केवल लेना जानते हैं, सवाल लोग उन्हीं से पूछे......... जो सवाल उठा रहे हैं, सबसे ज्यादा तो way of life इन्हीं का बिगड़ा हुआ है, जिन्होंने सवाल उठाए हैं, उनसे नम्र निवेदन है कि इंसानियत के नाते याकूब की कब्र पर दो फूल चढ़ा आएं लेकिन पता है उन्हें याकूब से लेना-देना नहीं, उसके परिवार से लेना-देना नहीं, उन्हें अपनी सियासत से लेना है जिसे फांसी पर चढ़ा दिया गया है। बाकी फिर.. इन्हें भी जरूर पढ़िए....bhootsotroyworld.blogspot.com   whatsappup.blogspot.com