Sunday, July 19, 2015

जीवन की उधेड़बुन

LIFE में तरह-तरह की इच्छाएं आती रहती हैं, हम अपने लिए केवल अच्छा ही अच्छा सोचते हैं, हां, दूसरों के लिए बुरा सोचने में कोई कोताही नहीं बरतते। हमेशा मन में आता है कि ज्यादा मेहनत न करना पड़े, ज्यादा से ज्यादा कमाई हो जाए, जो ऐशो-आराम पा लेते हैं, उसे तो अपना मान ही लेते हैं, उससे आगे की चाहत होनी लगती है। बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए जी-जान लगा देते हैं। उनकी पढ़ाई के लिए हर जतन करते हैं, रकम का जुगाड़ करते हैं। ये बात अलग है कि जब बच्चा पढ़ाई के लिए बाहर निकलता है तो उसके बाद बहुत कम बच्चे ही घर लौटकर आते हैं या फिर माता-पिता के साथ रहते हैं। पढ़ाई और उसके बाद नौकरी और उसके बाद शादी-ब्याह, इसके बाद उनकी खुद की चिंता शुरू हो जाती है। हम भी सोचते हैं कि भाई, हमने तो अपना काम कर दिया, अब बेटा-बेटी अपनी जाने, खुश रहे, हमारा साथ दे या फिर नहीं...



जिंदगी भर न केवल अपने बच्चों के लिए उधेड़बुन चलती रहती बल्कि अपने लिए भी..पढ़ाई के बाद सबसे पहले नौकरी की चिंता, नौकरी मिल गई तो वेतन बढ़ने की उधेड़बुन, इसके बाद दूसरी अच्छी नौकरी की चाहत, उसके बाद तीसरी नौकरी की चाहत, कैसे हर साल पैसा बढ़ते रहे, शुरूआत में सब चीज छोटी होती है, मसलन छोटा टीवी, छोटा फ्रिज, छोटा मकान, छोटी गाड़ी..जब सारी छोटी चीजें मिल जाती हैं तो फिर, उससे बड़ी चीज की चाहत, इसके लिए हम हर दिन कोशिश में जुटे रहते हैं और चिंता में रहते हैं।

जब बड़ी चीजें आ जाती हैं तो उससे अलग हटके जो नहीं है, उसे पाने को मन ललचाने लगता है, साथ में हम सोचते हैं कि हर वक्त हम जो चाहें, वही हो, हम जो पाना चाहते हैं, आसानी से पा लें, हम पाते हैं तो अच्छा लगता है लेकिन दूसरा पाता है तो कष्ट होता है। हम हमेशा चाहते हैं कि कम से कम मेहनत करें, ज्यादा से ज्यादा कमाई करें। जितने कम वक्त में जितना ज्यादा पा लें, यही उधेड़बुन रहती है। दूसरा कोई पाता है तो हम कोसते हैं, कहते हैं कि वो तो कमीना है, कुत्ता है, नालायक है, उसे कुछ नहीं आता है, या तो उसके संबंध हैं, पहचान है या फिर साजिश से करता है, या फिर उसका भाग्य है, जो मन में आता है, हम बकने लगते हैं, शायद दूसरे हमारे बारे में भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देते होंगे। जब हम आगे बढ़ते हैं तो दूसरे वही कहते हैं जो हम दूसरों के लिए ऊपर कह चुके हैं। कुल मिलाकर जिंदगी की हकीकत यही है कि हम जो कर रहे हैं उसके हम लायक हैं जो दूसरे कर रहे हैं वो नालायक हैं। दूसरे भी कहते हैं कि हम लायक हैं, आप नालायक हैं...
कुल मिलाकर हर कोई उसी जद्दोजहद में हैं, कि हम सबसे मजे में रहें, हमारी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा रहे, हमारे पास सबसे ज्यादा धन रहे, हमारे बच्चे सबसे लायक बनें, इसके ठीक उलट दूसरे हमसे नाकाबिल हैं, उनके पास ज्यादा धन नहीं होना चाहिए, उनकी कम प्रतिष्ठा होनी चाहिए, उनके बच्चे हमारे बच्चे से ज्यादा ऊपर नहीं जाना चाहिए...अगर हम नीचे रहते हैं और दूसरे ऊपर रहते हैं तो बड़ा कष्ट होता है, हम ऊपर रहते हैं, दूसरा नीचे रहता है तो बड़ा मजा आता है। दरअसल यही हमारा सबसे बड़ा भ्रम है जिसमें हम दूसरों के कष्ट को देखकर आनंदित होने लगते हैं जबकि कोई भी हो, अपने कष्ट खुद भोगता है, दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी उधेड़बुन में जो खुद को देखता है,दूसरों को नहीं, वो अपने जीवन को ज्यादा बेहतर बना सकता है..बाकी फिर.......