Sunday, August 14, 2016

इस नियति को कौन बदल सकता है?

पत्रकारिता आजादी के वक्त थी, आजादी के लिए थी, उसके बाद आज तक पत्रकारिता का जो हश्र है, वो व्यवसाय है उसके अलावा कुछ नहीं, इनमें से कुछ मालिक हैं, कुछ पत्रकार हैं जो थोड़ी-बहुत इज्जत बनाए हुए हैं लेकिन कुल मिलाकर प्रकाशक हो पत्रकार, उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं केवल व्यवसाय है,कारोबार है, हां, ये बात अलग है कि इस कारोबार की थोड़ी गरिमा है लेकिन ज्यादातर लोग अब इसमें केवल अपने स्वार्थ, दबदबे या फिर दबाव की राजनीति के लिए आ रहे हैं जिन्हें न तो पत्रकारिता से कोई लेना-देना है और न ही उसके मापदंडों से..लेना देना है तो बस अपने मुनाफे से, अपने धंधों को चमकाने से या फिर रुतबे से।..
ये बात भी सही है कि कोई भी मिशन या धंधा..बिना पैसों के नहीं चलता, सबसे पहले आपका पेट भरा होना चाहिए, फिर हम दूसरों की चिंता में डूबेंगे...घर फूंक तमाशा देखने वाला लाखों में या कहें करोड़ों में ही एक होगा। जो पहले पत्रकार थे वो भी पूंजीवादी बन गए और उसी तरह व्यवहार करने लगे..जैसे दूसरे कारोबारी करते थे क्योंकि उनकी भी चिंता वही हो गई जो किसी पूंजीवादी की होती थी। पत्रकार के पास कोई पूंजी नहीं, वो मालिक के दम पर क्रांति करने की सोचता है और चाहता है कि हम जो कहें वही सही। उसे बाकी से कोई लेना-देना नहीं होता। जिन पत्रकारों ने अपने ही दम पर क्रांति करने की सोची, वो गर्त में समा गए, उनके परिवार बदहाली में डूब गए और आखिर में दम तोड़ गए।
 ऐसे कई बुजुर्गों को देखा है, ऐसे कई युवाओं को देखा है जिन्होंने अपने अनुभव के आधार पर या फिर जोश में कुछ करने की ठानी लेकिन नाकामयाब हो गए। शायद ही कोई पत्रकारिता संस्थान होगा जो ये कहे कि हम बिना विज्ञापन के चलेंगे। अपनी पूंजी लगाने के बाद उस पूंजी को निकालना और मुनाफा कमाना आसान नहीं। इसके लिए क्या-क्या करना होता है, सबको मालूम, ये उन पत्रकारों को भी मालूम है जो ईमानदारी का तमगा लेकर घूम रहे हैं और खुद की पीठ थपथपाने में लगे हुए हैं। उनकी जो मजबूरियां है, वो अच्छी तरह से जानते हैं, उनकी जो विचारधारा है, वो उन्हें अच्छी तरह से पता है। ऐसे कई वरिष्ठ पत्रकार हैं जिनकी देश भर में तूती बदलती है लेकिन वक्त के साथ उनकी विचारधारा सबने बदलती देखी है। संस्थान की विचारधारा में यदि आप नहीं ढल सकते तो आपको बाहर होना ही होगा और अगर आप विचारधारा नहीं बदल सकते तो आपको उसी संस्थान में ही जाना होगा जो आपके मुताबिक हों, नहीं तो आपको घर बैठना होगा और ऐसे लोग घरों में बैठे भी हैं। यदि आप को अपने मुताबिक पत्रकारिता करना है तो या तो आप खुद संस्थान बनेंगे और अपने हिसाब से चलेंगे लेकिन ये भी कड़वा सच है कि संस्थान बनने के बाद आप भी कुछ उसी तरह से व्यवहार करने लगेंगे जैसा कि आपके साथ होता आया है।

इस नियति को कौन बदल सकता है?  क्या ख्याल है आपका?

Wednesday, October 28, 2015

बंदर,बवाल,बहस

सुबह मीडिया पर बिहार चुनाव की सरगर्मी थी, किसी दल के लिए नरमी थी किसी के लिए गर्मी थी, एंकर,गेस्ट,एक्सपर्ट,डाटा की बिसात बिछ चुकी थी, तभी बड़ी ब्रेकिंग ने एंकर को दहला दिया,वोटिंग की शुरूआत में ही एक बंदर नीतीश के पोलिंग बूथ पर हमला बोल चुका था, वन विभाग तो नहीं, कैमरे जरूर बंदर को कैद करने में जुटे थे, बंदर के बवाल की ब्रेकिंग चलने लगी थी, बहस बदल चुकी थी कि इतना बड़ा चुनाव,नीतीश का पोलिंग बूथ, इस बेखौफ बंदर को देखिए, मतदाताओं को डरा रहा है, लोकतंत्र के पर्व में खलल डाल रहा है, कहां है चुनाव आयोग, कहां है सरकार, गेस्ट भी बंदर के एक्सपर्ट बन चुके थे, राष्ट्रपति भवन और केंद्रीय मंत्रियों के आवासों से लेकर मीडिया के वाहनों का बंदरों से नुकसान पर मुद्दा गर्माने लगा था, तस्वीरों में हर दो सेकंड में बंदर एक बार काट जा रहा था, एंकर बता रहा था कि यही है वो जालिम बंदर, जिसने इस बुजुर्ग महिला को नहीं बख्शा, कुल मिलाकर बंदर बड़ा ही मंझा हुआ राजनेता सा लगा..जिसने आम आदमी को काट कर एक शाम बंदर के नाम की जगह पूरा दिन अपने नाम कर लिया. रोजाना काटने में राजनीति नहीं थी, चुनाव के दिन चुनने से बंदर खुश हो रहा था, बुजुर्ग महिला रो रही थी, फिर भी राजनीति हो रही थी.

चुनाव कैसे लड़ा जा रहा है?

एक मित्र आजकल बहुत व्यस्त हैं.पहले सलाह लेने के लिए हमसे समय मांगते थे, अब हाथ ही नहीं आ रहे थे, कहने लगे, बिहार चुनाव में व्यस्त हैं, मैंने कहा..भाई, आप न तो नेता हैं, न मीडिया में हैं, फिर आप चुनाव में क्या गुल खिला रहे हैं, कहने लगे, भाई तुम अपने हो, इसलिए बता देता हूं, आजकल पांचों उंगलियां घी में हैं और सिर कड़ाही में है, असल चुनाव तो मैं ही लड़वा रहा हूं, शुरूआत लोकसभा चुनाव से की थी, देखा..कैसी बंपर जीत मिली, अबकी बार भी पक्की है लेकिन मैंने पार्टी बदल ली है,पहले किसी और को जिताया, अबकी बार किसी और को जिता रहा हूं, विपक्ष को जिताना आसान था, पक्ष को जिताना मुश्किल, लेकिन जिता दिया तो फिर बल्ले बल्ले है। मैंने कहा-पहेलियां मत बुझाओ, आपका काम क्या है, बोले..मूर्ख हो, मूर्ख रहोगे, असल चुनाव तो मैं लड़ा रहा हूं, जो मैदान में दिख रहा है, जो मीडिया में छाया हुआ है, जो सोशल मीडिया पर विवाद चल रहे हैं, ये किसने पैदा किए हैं, इसकी स्क्रिप्ट मैं ही लिख रहा हूं. चुनाव अब सामने से नहीं लड़ा जाता है, सब कुछ तकनीकी हथियारों से लड़ा जाता है, कंप्यूटर, लेपटाप और मोबाइल से..नहीं समझ आया तो आपके लिए एक बानगी पेश करता हूं, ये स्क्रिप्ट तैयार है, आज हमारे नेता इसे सभा में पढ़ेंगे, इस पर ये विवाद शुरू होगा..देखते जाईए..वाकई सुबह बताया, शाम को वही हुआ..विकास को कैसे हवा किया..पता चला, बीफ से लेकर शैतान, ब्रह्मपिशाच, थ्री इडियट, चुटकले, कहानी-किस्से, पुराने वीडियो से लेकर नए स्टिंग तक सब कुछ पर काम चलता रहता रहता है, हर चरण की अलग तैयारी है, किस मुद्दे को हवा देना है, किसको हवा करना है, टीम पूरी चौकस है, मैं नतमस्तक था उनके आगे, वाकई चुनाव लड़ कोई रहा है, लड़ा कोई रहा है और लड़खड़ा कोई रहा है.